कभी एक गौरव रहा मलकानगिरि टट्टू, जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहा है

मल्कानगिरि, ओडिशा

ओडिशा की मुख्य भूमि से कटा, ‘स्वाभिमान आँचल’ का भीतरी इलाका सदियों से सामान और लोगों को ढोने के लिए घोड़ों पर निर्भर था, लेकिन आधुनिक सड़कों ने इन जानवरों को हाशिए पर धकेल दिया है।

यदि किसी ने बीच रास्ते घोड़ा बदला है, तो संभवतः वह ओडिशा के सबसे दक्षिणी मलकानगिरी जिले के स्वाभिमान आंचल के आदिवासी भीतरी इलाकों के लोग हैं।

172 गांवों का घर, 372 वर्ग किलोमीटर में फैला यह इलाका, घने जंगलों और पश्चिमी घाट की ऊबड़-खाबड़, ढलती पहाड़ियों वाला एक बाहरी इलाका है। सालों से, इस अलग-थलग इलाके में रहने वाले गदाबा, कोंध, कोटिया, कोंडाडोरा और परोजा जैसे आदिवासी समुदाय, परिवहन के लिए लगभग पूरी तरह से एक खास टट्टू पर निर्भर थे।

धुलिपुट गाँव के 90-वर्षीय बैदेइ हंतल कहती हैं – “बचपन से मैंने अपने गाँव में घोड़ा देखा है। हम सामान ढोने के लिए टट्टुओं का इस्तेमाल करते थे।”

और वे अपने रिश्तेदारों और मेहमानों को विवाह और त्यौहारों पर भी ले जाते थे।

वह कहती हैं – “इस तरह घोड़ा हमारे परिवार का हिस्सा बन गया।”

लेकिन अब उतना नहीं है। 

अधिक कारों और बेहतर सड़कों ने टट्टुओं की मांग कम कर दी है, जिससे कुछ को इन नई सड़कों पर कचरे को खाना पड़ रहा है।

मल्कानगिरी टट्टू क्या है ?

यह बहस का विषय है कि चेस्टनट, ब्लैक बे, व्हाइट बे और व्हाइट रोन जैसे रंगों की एक श्रृंखला में आने वाला मल्कानगिरी टट्टू क्या वास्तव में इतना छोटा है कि इसे आधिकारिक तौर पर टट्टू के रूप में मान्यता दी जा सके। इसकी लगभग पाँच फुट की ऊंचाई एक टट्टू और घोड़े के बीच की है।

ओडिशा के चित्रकोंडा ब्लॉक में टट्टू घोड़े पर सवार एक बच्चा (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

इसकी सही उत्पत्ति भी अस्पष्ट है। कुछ लोग कहते हैं कि वे आंध्र से 100 साल से भी अधिक पहले यहां लाए गए थे।

अब इस क्षेत्र के 40 गाँवों में 400 से ज्यादा घोड़े हैं। हालाँकि यह पहले की तुलना में बहुत कम है।

भार ढोने वाला पशु

एक बात पक्की है कि वे पक्के पैर वाले, दमदार जानवर हैं, जो ऊबड़-खाबड़ पटरियों पर भी भार ढो सकते हैं।

घोड़ा हमारे परिवार का हिस्सा बन गया था 

तारों भरे आकाश के साथ भोर होने से बहुत पहले, वे दोनों ओर नीचे गहराई में बहती नदियों के ऊपर संकीर्ण पगडंडियों पर, गहरे जंगलों से हो कर गुजरते हैं।

और ऐसा हर मौसम में चलता है।  

मल्कानगिरी में वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटी नेटवर्क (WASSAN) के पशुधन एवं मत्स्य अधिकारी, उदय कुमार कल्याणापू कहते हैं – “वे भोजन की कमी और सूखे को झेल हैं।”

वे बाजरा, दालें, तिलहन, जंगली फल, शहद, जड़ें और मशरूम जैसे कृषि और वन उत्पाद मैदानी इलाकों के बाजारों में ले जाते हैं। वे वापसी में खाना पकाने का तेल, मिट्टी का तेल, नमक, चावल और अन्य सामान लाते हैं।

पुराने दिनों में वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था। आज लेनदेन पैसे से होता है।

सुदूर, संपर्क से कटे इलाके में एक जीवन रेखा

झुंड में रहने वाले ये जानवर इन लोगों के लिए जीवनधारा थे, जिनमें से बहुत से अब भी उन पर निर्भर हैं।

कई लोगों के लिए घोड़े का मालिक होना एक प्रतिष्ठा का प्रतीक था, और कुछ हद तक अब भी है। एक स्वस्थ टट्टू की कीमत लगभग 25,000 रुपये होती है, जो ग्रामीणों के लिए बहुत बड़ी रकम है। जो लोग इसे रखने में सक्षम नहीं हैं, उनके लिए 200 रुपये प्रतिदिन किराये पर यह उपलब्ध हैं।

कुछ साल पहले तक, घोड़ा महत्वपूर्ण था, विशेष रूप से इलाके के सुदूर होने के कारण, जो दशकों पहले बने दो प्रमुख जलाशयों, मचकुंड और बालिमेला के कारण और ज्यादा अलग थलग हो गया।

धुलिपुट गाँव के बैदेई हन्तल कहते हैं कि ये घोड़े हमारे परिवार का हिस्सा बन गए हैं (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

इन दोनों से 60 किलोमीटर तक फैला एक जलमार्ग बनाया, जिसने तीन तरफ के गांवों को खाई की तरह काट दिया और इस क्षेत्र को ओडिशा की मुख्य भूमि से अलग कर दिया। यह त्रिभुजाकार भूमि आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में फैली हुई है।

भयावह कहानियों से भरा यह एकांत क्षेत्र, माओवादी गुरिल्लाओं के लिए आदर्श ठिकाना थी।

चित्रकोंडा ब्लॉक की धुलिपुट पंचायत के सरपंच, 55-वर्षीय सुकदेव बुरूडी याद करते हुए कहते हैं – “एक समय यह नक्सल विद्रोहियों और सशस्त्र बलों का युद्धक्षेत्र था।”

इस क्षेत्र का एक गाँव सिंधीपुट, फरवरी 2011 में राष्ट्रीय सुर्खियों में आया था, जब उग्रवादियों ने जिला कलेक्टर और एक जूनियर इंजीनियर का अपहरण कर लिया था और उन्हें आठ दिनों तक बंधक बनाकर रखा था।

यह क्षेत्र परित्यक्त था और चार दशकों से विकास मानचित्र से गायब था।

परित्यक्त, उपेक्षित

लेकिन हाल के वर्षों में विकास इस क्षेत्र में हुआ है।

हमारी युवा पीढ़ी टट्टू पालने में कम रुचि दिखा रही है।

सड़कें बनाई गईं। मशीनी परिवहन इस भूभाग में आम है, जिससे टट्टुओं की मांग कम हो गई।

जोडम्बो गाँव के डंबरू बुरूडी कहते हैं – “हमारी युवा पीढ़ी टट्टू पालने में कम रुचि दिखा रही है।”

लोगों द्वारा उपेक्षित और परित्यक्त, बहुत से टट्टू सड़कों के किनारे कूड़े के ढेरों पर भोजन तलाशते नजर आते हैं।

एक स्थानीय स्वैच्छिक संगठन, ‘परिबर्तन’ के पशुधन समन्वयक, चंद्रा गोमांगो के अनुसार, पिछले दो दशकों में टट्टूओं की आबादी में काफी कमी आई है। उनका कहना था कि तत्काल संरक्षण प्रयासों की जरूरत है।

मल्कानगिरी जिले के चित्रकोंडा ब्लॉक के पहाड़ी इलाके में घाट सडकों को काटते हैं (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

गोमांगो कहते हैं – “देशी जर्मप्लाज्म के संरक्षण के लिए विशेष नीतियों की जरूरत है। हमें संकर नस्ल और नस्ल प्रतिस्थापन से बचना चाहिए। इनसे देशी नस्लों को आनुवंशिक रूप से कमजोर कर सकता है।”

विशेष प्रजनन फार्म स्थापित करना, जहाँ तक हो सके स्थानीय इलाकों में, और व्यापक आधार से जानवरों का चयन करना, उनकी आनुवंशिक परिवर्तनशीलता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है।

मल्कानगिरी के अलावा, आंध्र प्रदेश में भी लगभग 226 ऐसे ही घोड़े पाए जाते हैं।

स्थानीय लोगों को इन जानवरों के संरक्षक के रूप में मान्यता देना, उन्हें पशुपालक बनाना और घरेलू पशु विविधता के लिए नीतियों का मसौदा तैयार करने में उन्हें शामिल करना, दीर्घकालिक संरक्षण लक्ष्यों के लिए महत्वपूर्ण है।

इस ग्रिड से दूर के क्षेत्र अब भी उम्मीद जगाए हुए हैं।

धूलिपुट के सरपंच, सुकदेव बुरूडी कहते हैं – “स्वाभिमान आँचल के बहुत अंदर स्थित गाँव अब भी हर मौसम के लिए उपयुक्त सड़कें, जल आपूर्ति और चिकित्सा सेवाओं जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।”

वहां घोड़ों का उपयोग अब भी सरकारी कार्यों के लिए किया जा रहा है, जैसे कि वोटिंग मशीनों और चुनाव अधिकारियों को ले जाना और ऐसे ही बहुत से काम।

एक अन्य ग्रामीण, गंगाधर बुरूडी ने कहा – “सार्वजनिक वितरण केंद्रों पर चावल इकट्ठा करने के लिए हम इन घोड़ों पर भरोसा करते हैं।”

शीर्ष पर मुख्य फोटो में ओडिशा के खुले मैदान में घास चरते एक टट्टू घोड़े को दिखाया गया है (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

अभिजीत मोहंती भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं।