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“मेरे शिष्य एक दिन ओलंपिक में खेलेंगे”

करुणा पूर्ति गरीबी और पूर्वाग्रह को हराकर राष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी बनीं। अब वह उन लड़कियों को कोचिंग देती हैं, जिनकी आंखों में वही सपना है, जो उन्होंने कई साल पहले देखा था। झारखंड के खूंटी जिले की करुणा पूर्ति के सफर की कहानी उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है।

मैं एक गरीब किसान परिवार की एक सामान्य लड़की थी, जैसा कि झारखंड के ग्रामीण इलाकों में एक आम बात है। एक हॉकी स्टिक खरीदने की भी हमारी हैसियत नहीं थी।

लेकिन यदि आपने मुझे उस समय देखा होता, तो आपको मेरी आँखों में बड़े-बड़े सपने दिखाई देते।

बारह साल की उम्र में मैंने बाँस और जंगल से जो भी लकड़ी मिली, उससे अपनी ही हॉकी स्टिक बनाई।

स्वाभाविक रूप से, मेरे माता-पिता ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। मेरी दादी एक महिला के हॉकी खेलने और मैदान में इधर उधर दौड़ने के विचार के खिलाफ थीं। आखिर लड़कियों से अपेक्षा की जाती है कि वे शादी करें और घर के कार्यों में मदद करें।

लेकिन झारखंड के खूंटी जिले के मेरे गांव में कई लड़कियां हॉकी खेलती हैं। जब मैंने उन्हें दक्षता से अपनी स्टिक का इस्तेमाल करते हुए देखा, तो मेरी उसे सीखने की इच्छा हुई।

मैं देखती थी कि उन्होंने क्या पहना था। उनकी स्पोर्ट्स जर्सी मुझे बहुत पसंद आई, क्योंकि यह उससे अलग थी, जो हम आमतौर पर पहनते हैं।

यह प्रफुल्लित करने वाला था।

मेरे माता-पिता की रुचि की कमी और हमारे परिवार की खराब आर्थिक स्थिति के बावजूद, मैंने अपना अभ्यास जारी रखा। आप सावित्री पूर्ति को आप जानते हैं, जो अपनी आर्थिक दिक्कतों के बावजूद भारतीय टीम का नेतृत्व करने तक पहुंची थी? वह मेरी प्रेरणा थी।

मेरी खुशी का अंदाजा लगाइये, जब मुझे राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए चुना गया। मैं बहुत उत्साहित थी।

मैंने 1990 के दशक में बिहार राज्य का प्रतिनिधित्व किया, क्योंकि खूंटी, जो अब झारखंड में है, उस समय अविभाजित बिहार का हिस्सा था।

आज मैं हॉकी सिखाती हूँ।

यह एक गर्व का क्षण था, जब मुझे छोटे बच्चों को प्रशिक्षण देने के लिए चुना गया, विशेष रूप से इसी केंद्र में, जहां मैंने वर्षों पहले प्रशिक्षण लिया था। मैं झारखंड सरकार के सहयोग की बदौलत, रांची के बरियातू हॉकी प्रशिक्षण केंद्र में अभिलाषी खिलाड़ियों को सिखाती हूँ। 

यहां लगभग 30 आदिवासी लड़कियां हैं, जिनमें से कई राष्ट्रीय स्तर पर खेलती हैं।

यह एक थका देने वाला अभ्यास कार्यक्रम है, जो सुबह 5.30 बजे शुरू होता है और दोपहर तीन बजे फिर से शुरू होता है। लेकिन वे सब आते हैं।

वे ज्यादातर मेरे जैसी ही पृष्ठभूमि से हैं।

वहां पर, उस लड़की बिनिमा धन को देख रहे हैं? वह मेरी ही तरह, बाँस की स्टिक और बेल के फल की गेंद से खेलती थी। और वहाँ बालो होरो है, जिसके पिता का निधन हो चुका है, और जो उधार की स्टिक से खेलती थी।

मुझे गर्व महसूस होता है कि मैं अपने ज्ञान को बांटने और उनके सपनों को पूरा करने में उनकी मदद कर पा रही हूँ। 

मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हॉकी मुझे नौकरी दिलाएगी।

उस समय, हमें पता नहीं था कि भारतीय महिला हॉकी हमारे जीवनकाल में इतनी दूर आ जाएगी। मेरे जैसी ग्रामीण लड़की के लिए यहां तक ​​पहुंचना बहुत बड़ी उपलब्धि है।

ओलंपिक में भारत के शानदार प्रदर्शन के बाद, कुछ परिवार जो पहले सहयोग नहीं करते थे, अब चाहते हैं कि उनके बच्चे हॉकी सीखें।

जागरूकता बढ़ी है, लेकिन यहां प्रशिक्षण लेने वाली लड़कियों की आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। लड़कियों में से एक, मोनिका नाग, बहुत खुश हुई, जब उसके पिता ने उसे एक स्टिक उपहार में दी।

मुझे यकीन है कि मेरी लड़कियां एक दिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व करेंगी।

हो सकता है ओलंपिक में भी।

दिल्ली स्थित पत्रकार दीपन्विता गीता नियोगी की रिपोर्ट।

छायाकार – तीर्थ नाथ आकाश।