देसी गुलाब लाया सफलता की मीठी सुगंध

अपनी तेज सुगंध और अनुष्ठानों एवं उत्सवों में उपयोग के लिए प्रसिद्ध "देसी गुलाब" की खेती और रचनात्मक बिक्री की बदौलत, महाराष्ट्र का कभी सूखाग्रस्त रहा गांव, आज "लखपतियों" से भरा हुआ है।

यह कहानी है, महाराष्ट्र (भारत) के देसी गुलाब की।

सुबह के चार बजे हैं और पूरा कुम्हार परिवार, युवा और बूढ़े सब, दिसंबर की शुरुआत की ठंड का सामना करते हुए, खेत में आ चुका है। खनन में इस्तेमाल होने वाली टॉर्च पहने, वे फुर्ती से, कांटों से बचते हुए, खिलते हुए गुलाबों को तोड़ते हैं।

वे अकेले नहीं हैं। महाराष्ट्र के वाडजी गांव के दूसरे परिवार भी उन्हीं खेतों में गुलाब तोड़ रहे हैं, जिनमें उन्हें कभी सब्जियां उगाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था।

दो घंटे की मेहनत के बाद, अभी-अभी खिल रही कलियाँ उठाकर, किसान खेत से जा रहे हैं। उनके शरीर और कपड़े फूलों की गहरी, मीठी सुगंध लिए हैं।

“देसी गुलाब”, बाग के गुलाब की एक किस्म, जिसे ‘रोजा सेंटीफोलिया’ (Rosa centifolia) कहा जाता है, दुनिया भर में अपनी मादक सुगंध के लिए जाना जाता है। यह उन हाइब्रिड गुलाब की किस्मों से अलग है, जिनमें रंगों की ज्यादा विविधता तो होती है, लेकिन गंध मामूली होती है।

इकठ्ठा किए गए फूलों को बोरों में पैक किया जाता है और पुरुष उल्लासपूर्वक अपनी उपज बेचने के लिए मोटरसाइकिल पर सोलापुर बाजार की ओर निकल पड़ते हैं।

भारत के “गुलाब गांव” में खिले लखपति

वाडजी कभी सूखाग्रस्त गांव हुआ करता था।

लेकिन पिछले 32 वर्षों में यह गुलाब की खेती के एक लाभदायक केंद्र के रूप में उभरा है, जिससे यह “गुलाब गांव” के नाम से ख्याति प्राप्त कर रहा है और बहुत से गरीब किसानों को संपन्न “लखपति” में बदल रहा है।

हालांकि पास के एक दूसरे किसान ने फूल उगाए, लेकिन उसे बाजार में कम सफलता मिली, वहीं वाडजी के 340 परिवारों ने देसी गुलाब उगाकर व्यावसायिक सफलता प्राप्त की।

कुंडलिक कुम्हार और उनके परिवार की तरह, वाडजी के सभी किसान परिवार भोर के समय देसी गुलाब तोड़ते हैं (छायाकार - हिरेन कुमार बोस)
कुंडलिक कुम्हार और उनके परिवार की तरह, वाडजी के सभी किसान परिवार भोर के समय देसी गुलाब तोड़ते हैं (छायाकार – हिरेन कुमार बोस)

आंशिक रूप से यह खेती की अच्छी, टिकाऊ पद्धतियों के कारण संभव हुआ, लेकिन ग्रामीणों की पवित्र तीर्थयात्रियों से भरे शहर को फूल बेचने की रचनात्मक काबिलियत की भी भूमिका है।

भारत के देवताओं और त्योहारों के लिए देसी गुलाब का महत्व

कर्नाटक की सीमा से लगा सोलापुर, महाराष्ट्रियन, कन्नड़ और तेलुगु बोलने वालों का घर है। यह हिंदू और जैन मंदिरों, मस्जिदों, दरगाहों और पुराने मकबरों से भरा होने के साथ-साथ, यहां प्रतिष्ठित श्री सिद्धेश्वर मंदिर भी है।

यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि इस छोटे से शहर में कभी भी उत्सवों की कमी नहीं होती है, जैसा कि स्थानीय लोग कहते हैं – “बारा माही उत्सवी घई” यानि 12 महीनों त्योहार के लिए उत्सुक।

और देवताओं पर चढ़ने वाला पसंदीदा नैवेद्य, या चढ़ावा क्या है?

गुलाब। बहुत से गुलाब।

किसानों के लिए सौभाग्य की बात है कि इस सुगंधित फूल से न सिर्फ देवताओं और उनके पवित्र स्थानों पर वर्षा की जाती है।

उभरते रिश्तों और शादियों का जश्न मनाते हैं देसी गुलाब

बीते सालों में, गुलाब विवाह समारोहों का भी एक अभिन्न अंग बन गया है, इतना ज्यादा कि कोई भी शादी उनके बिना पूरी नहीं होती है।

और यह सब गुलाब के किसानों और परमेश्वर और कुंडलिक कुम्हार भाइयों की बदौलत हुआ, जिन्होंने एक बड़े विवाह समारोह में मेहमानों पर फेंके जाने वाले कागज के टुकड़ों (कंफ़ेद्दी) की जगह चमकीले, सुगंधित गुलाब की पंखुड़ियों के उपयोग करने का दिमाग लगाया।

कुंडलिक कुम्हार कहते हैं – “यह 2012 के किसी समय की बात है कि हमें 200 जोड़ों के सामूहिक विवाह की योजना के बारे में पता चला। हमने आयोजकों से चावल की बजाय गुलाब का उपयोग कंफ़ेद्दी के रूप में करने का आग्रह किया।”

आयोजक सहमत हो गए, जिससे 600 किलो चावल की बचत हो गई।

कुंडलिक कुम्हार ने कहा – “तब से शहर की ज्यादातर शादियों में गुलाब का इस्तेमाल होता रहा है, जिससे उनकी मांग बढ़ गई है।”

देसी गुलाब की खेती का नाजुक संतुलन

हालांकि इनका शादियों में इस्तेमाल होता है, लेकिन माला बनाने के लिए इनका उपयोग शायद ही कभी होता है, क्योंकि संकर गुलाब के विपरीत, Rosa centifolia (जिसे ‘कैबेज रोज’ भी कहा जाता है) की पंखुड़ियां जल्दी गिर जाती हैं।

समारोहों की मांग को देखते हुए, देसी गुलाब वाडजी के किसानों के लिए एक नियमित दैनिक आय प्रदान करते हैं (छायाकार – हिरेन कुमार बोस

बाजार के अवसर को भुनाने के लिए हमेशा उत्सुक रहने वाले, बहुत से किसानों ने स्थानीय विश्वविद्यालय से मदद मांगी है, ताकि गुलाब अपना रंग और सुगंध बरक़रार रखते हुए, लंबे समय तक पंखुड़ियों को रख पाए।

सोलापुर की ‘कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन एजेंसी’ के सहायक प्रौद्योगिकी प्रबंधक, विक्रम फुटाणे कहते हैं – “हमने राहुरी में कृषि विश्वविद्यालय, महात्मा फुले कृषि विद्यापीठ (MPKV) से संपर्क किया है, और यदि इस मुद्दे को हल किया जाता है तो किसानों को बेहतर कीमत मिलेगी।”

लेकिन यह एक नाजुक संतुलन है। जहां गुलाब को बहुत कम पानी की जरूरत होती है, वहीं उन्हें भारी निषेचन (फर्टिलाइजेशन) की जरूरत होती है। लेकिन किसान केवल जैविक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करते हैं, क्योंकि फूल के प्राकृतिक तेलों का उपयोग भोजन में भी किया जाता है।

कुंडलिक कुम्हार ने कहा – “हम रसायनों का उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि हम पंखुड़ियों से खाद्य पदार्थ बनाते हैं।”

देसी गुलाब: साल भर फसल

गुलाब पूरे वर्ष खिलते हैं, सिवाय अक्टूबर और दिसंबर के बीच 45 दिनों के लिए, जब किसान पौधों की छंटाई करते हैं और उन्हें आराम देते हैं। और मानसून में गुलाब बहुत ज्यादा खिलते हैं।

पौधों को मिलने वाले पोषण के आधार पर, प्रत्येक एकड़ में एक दिन में 10 से 100 किलोग्राम गुलाब का उत्पादन होता है। सोलापुर बाजार में हर दिन 8 लाख रुपये मूल्य के 8 टन से ज्यादा गुलाब बिकते हैं, जिनकी कीमत 70 से 200 रुपये प्रति किलोग्राम होती है।

भोर के समय उत्पादक फूलों को बाजार ले जाने की जल्दी में होते हैं, उसका एक कारण है।

एक किसान, बालाजी वेंकटेश कदम कहते हैं – “आप जितनी जल्दी बाजार पहुंचते हैं, उतना ही ज्यादा कमाते हैं। 5 या 10 रुपये प्रति किलो ज्यादा।”

व्यापारी रोज आइसबॉक्स में पैक करके एक से दो टन गुलाब मुंबई के दादर बाजार में भेजते हैं।

382 सदस्यों वाली एक किसान उत्पादक कंपनी, ‘श्री खंडोबा एग्रो प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड’ के चेयरमैन परमेश्वर कुम्हार कहते हैं – “त्योहारों और शादियों के मौसम में हमें अच्छी कीमत मिलती है। गुलाब की खेती ने सुनिश्चित किया है कि प्रत्येक किसान प्रतिदिन 500 से 2,000 रुपये के बीच कमा सके।”

उतार-चढ़ाव से बचाव: मीठे उप-उत्पाद

लेकिन ज्यादातर कृषि उत्पादों की तरह, गुलाब भी बाजार के उतार-चढ़ाव का शिकार होता है।

लेकिन वाडजी के किसानों ने मूल्य-वर्धित उत्पाद बनाकर, इसे अपने लाभ में बदल दिया है, जिससे गुलाब के बाजार में नरमी आने पर उनके मुनाफे का बचाव होता है।

कुंडलिक कुम्हार ने वाडजी में कृषि उत्पादक कंपनी द्वारा निर्मित कारखाने की ओर इशारा करते हुए कहा – “जब कीमतों में भारी गिरावट आती है, तो हम गुलाब जल या गुलकंद बनाते हैं, जो गुलाब की पंखुड़ियों का एक मीठा मुरब्बा है। हम जल्द ही अगरबत्ती बनाने की योजना बना रहे हैं।”

देसी गुलाब के खेत पर्यटकों को आकर्षित करते हैं

हाल के वर्षों में 400 एकड़ में फैले विशाल और सुगंधित गुलाब के खेत, कृषि-पर्यटन का आकर्षण भी बन गए हैं।

बहुत से लोगों के लिए, देसी गुलाब के खेत कृषि-पर्यटन स्थल बन रहे हैं (छायाकार - हिरेन कुमार बोस)
बहुत से लोगों के लिए, देसी गुलाब के खेत कृषि-पर्यटन स्थल बन रहे हैं (छायाकार – हिरेन कुमार बोस)

न सिर्फ उन परिवारों के लिए, जो ग्रामीण इलाकों की सैर करना चाहते हैं, बल्कि शिक्षकों के लिए भी।

पिछले साल कुम्हारों ने एक ही दिन में करीब 150 स्कूली बच्चों, शिक्षकों और अन्य लोगों की मेजबानी की थी।

गुलाब की खेती वाडजी के किसानों के लिए बेहतर समय लाई है। वे दिन गए, जब सब्जियों की कीमतों की अनिश्चितता उनके जीवन पर राज करती थी।

इतना ही नहीं।

गुलाब की खेती की सफलता अन्य जिलों के किसानों के लिए एक आदर्श स्थापित कर रही है, जो वाडजी की सफलता की मीठी सुगंध को दोहराने की कोशिश कर रहे हैं।

हिरेन कुमार बोस महाराष्ट्र के ठाणे में स्थित एक पत्रकार हैं। वह सप्ताहांत में किसान के रूप में काम करते हैं।