मछली उनकी थाली में, और पैसा उनके बटुए में

ओडिशा के पिछड़े जिले, मयूरभंज में महिलाएं लगातार मछली पालन करती हैं, जिससे न सिर्फ उनको पैसा मिलता है, बल्कि उनके परिवार के लिए बेहतर पोषण भी सुनिश्चित होता है।

यह कहानी ग्रामीण ओडिशा में समुदाय आधारित जल-कृषि (जैसे मत्स्य पालन), उसके आर्थिक लाभ और इसके पीछे की बहादुर महिलाओं के बारे में है।

लाखों भारतीयों के लिए, महामारी का मतलब सिर्फ रोजगार चले जाना नहीं था, बल्कि इसका मतलब जीविका का नुकसान भी था। खासकर ग्रामीण इलाकों में किसी प्रकार जीवन यापन करने वालों के लिए।

कडपलासा गांव की सलामा सोरेन कहती हैं – “जब हमारी कमाई कम होती है, तो हम कम खाते हैं। इसलिए हमारे बच्चे कम किस्म की सब्जियां और कम मांस खाते हैं।”

महामारी आने से पहले भी, ओडिशा के मयूरभंज जिले में वंचित समुदायों की स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। नीति आयोग की ‘राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2021’ रिपोर्ट के अनुसार, मयूरभंज के लगभग 45% लोगों को “बहुआयामी गरीब” के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

महामारी ने उनके हालात और भी खराब कर दिए हैं।

ऐसी बाधाओं के सामने, मयूरभंज जिले के खुंटा प्रशासनिक ब्लॉक में महिला स्वयं सहायता समूह अपने गांव के तालाबों में मछली पालन कर रहे हैं। समुदाय आधारित यह मत्स्य पालन उन्हें न सिर्फ आय, बल्कि पोषण भी प्रदान करता है।

यह सफलता की कहानी सही समय पर बनी है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र ने 2022 को ‘दस्तकारी मछली पालन और जल-कृषि के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ के रूप में नामित किया है।

समुदाय आधारित जल-कृषि से महिलाओं का सशक्तिकरण

महिला सशक्तिकरण की एक पहल, ‘ओडिशा आजीविका मिशन’ (OLM) और ‘मिशन शक्ति’ के सहयोग से, महिलाओं के स्वयं सहायता समूह (SHG) समुदाय आधारित जल-कृषि कर रहे हैं। यह कार्यक्रम एक सतत और व्यवहार्य आजीविका मॉडल है, जो बदलते परिवेश के प्रति सहनशील है।

महिला स्वयं सहायता समूहों की सदस्य, समुदाय आधारित जल-कृषि मॉडल से मछली पालन के लिए, गांव के तालाबों को पट्टे पर लेते हैं|
महिला स्वयं सहायता समूहों की सदस्य, समुदाय आधारित जल-कृषि मॉडल से मछली पालन के लिए, गांव के तालाबों को पट्टे पर लेते हैं (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

प्रत्येक SHG में लगभग 10 सदस्य होते हैं, जिनमें से ज्यादातर एकल महिलाएं हैं। उनमें से ज्यादातर संथाल, मुंडा, भूमिजा और हो जनजातियों से हैं।

खुंटा की बाल विकास कार्यक्रम अधिकारी, हरप्रिया पात्रा कहती हैं – “इन्हें उच्च जोखिम वाले परिवारों के रूप में नामित किया गया है। इनकी आय और पोषण सुनिश्चित करना अनिवार्य है।”

ओडिशा आजीविका मिशन ने मछली के अंडे, तैरने वाला जैविक चारा और सरसों की खली (केक) से बना मछली का चारा प्रदान किए।

महिलाओं को ओडिशा के ‘मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास विभाग’ द्वारा बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित भी किया गया था।

समुदाय आधारित जल-कृषि सीखना

प्रशिक्षण सत्रों में महिलाओं ने सीखा कि मछली पालन कैसे किया जाता है और साथ ही तालाब में फसल-अवशेष और यहां तक ​​कि रसोई के कचरे का उपयोग कैसे किया जाता है।

मत्स्य विभाग के एक अधिकारी, प्रकाश गिरी ने VillageSquare को बताया – “मूल ​​रूप से, हम उन्हें स्थानीय रूप से उपलब्ध कम लागत वाली सामग्री का इस्तेमाल सिखाते हैं। इससे मछली के लिए प्राकृतिक भोजन बेहतर होगा।”

महिलाओं ने यह भी सीखा कि चावल और मूंगफली के पाउडर का उपयोग कैसे करें, जिसमें मछली के जीवित रहने के लिए जरूरी सभी पोषक तत्व होते हैं।

स्वयं सहायता समूहों के एक समूह, ‘बहानाडा फेडरेशन’ की प्रवती मरांडी कहती हैं – “अब हम प्राकृतिक भोजन के फायदे जानते हैं। अब हमारे तालाब की मछलियां ज्यादा तेजी से बढ़ रही हैं और ज्यादा स्वस्थ हैं।”

बहुत ज्यादा, बहुत जल्दी के लालच से बचना

प्रशिक्षण के बाद भी, मत्स्य विभाग महिलाओं का मार्गदर्शन और सहयोग जारी रखता है, क्योंकि स्वस्थ तालाब का रखरखाव एक नाजुक संतुलन है।

प्रशिक्षण के दौरान, स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने मछली को खिलाने और के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल और तालाब को स्वस्थ रखने के बारे में सीखा|
प्रशिक्षण के दौरान, स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने मछली को खिलाने और के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल और तालाब को स्वस्थ रखने के बारे में सीखा (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

महिलाओं को रासायनिक एंटीबायोटिक्स से लेकर गलत चारे के इस्तेमाल तक से बचने की दूसरी टिकाऊ पद्धतियों के बारे में भी सिखाया जाता है, क्योंकि बहुत ज्यादा और बहुत जल्दी मछली की उपज हानिकारक हो सकती है।

ओडिशा आजीविका मिशन के एक अधिकारी, अजय कुमार नायक कहते हैं – “यदि हम उन्हें गहन जल-कृषि की बुराइयों के बारे में जागरूक नहीं करें, तो यह हानिकारक कचरा पैदा कर सकता है। और इससे जलीय जैव विविधता को खतरा होगा।”

समुदाय आधारित जल-कृषि: देशी प्रजातियां लाती हैं अधिक लाभ

क्योंकि देशी मछलियां सबसे अच्छी तरह पनपती हैं, इसलिए महिलाएं स्थानीय मछलियाँ पालती हैं। जो किस्में वे पालती हैं, उनमें रोहू, कतला और कार्प शामिल हैं।

मिशन के एक अधिकारी, श्रीनिबास दास ने कहा – “देशी प्रजातियों का प्रदर्शन बेहतर है। वे स्थानीय जलवायु तंत्र के लिए लचीली हैं और उनके बेहतर दाम मिलते हैं, क्योंकि लोग विदेशी किस्मों के मुकाबले इनका स्वाद ज्यादा पसंद करते हैं।”

महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों में से कई, मछली बेचने में अपनी सफलता से प्रेरित हैं, जिसकी ऊंची मांग है।

पिछले साल, बाबा बालुंकेश्वर समूह ने लगभग 10 क्विंटल मछली की उपज ली, जिससे 75,000 रुपये का शुद्ध लाभ हुआ।

बाबा बालुंकेश्वर समूह की अध्यक्ष, सस्मिता पात्रा कहती हैं – “हमने अपने एसएचजी बैंक खाते में 50,000 रुपये जमा किए और  25,000 रुपये अपने सदस्यों में बराबर-बराबर बाँट लिए।”

महिलाएं बड़ी मात्रा में मछलियां बेचती हैं - वे मुनाफे का ज्यादातर हिस्सा पुनर्निवेश करती हैं, लेकिन फिर भी उनके पास अपने बच्चों को खिलाने और पढ़ाने में मदद के लिए बच जाता है|
महिलाएं बड़ी मात्रा में मछलियां बेचती हैं – वे मुनाफे का ज्यादातर हिस्सा पुनर्निवेश करती हैं, लेकिन फिर भी उनके पास अपने बच्चों को खिलाने और पढ़ाने में मदद के लिए बच जाता है (छायाकार – न्गुयेन लिन्ह, अनस्प्लैश)

उन्होंने अपने मछली व्यवसाय को बढ़ाने के लिए 2 लाख रुपये का बैंक ऋण लिया है और लगभग 25 क्विंटल मछली की उपज की उम्मीद है।

समुदाय आधारित जल-कृषि से आर्थिक सशक्तिकरण

जैसे-जैसे वे और कमाती हैं, वैसे-वैसे मुनाफ़े से महिलाएं अपने परिवार के स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार के लिए खर्च करने में सक्षम होती हैं।

इमैनुएल समूह की सरोजिनी हंसदा ने बताया – “लोग हमारी मछली पसंद करते हैं और अच्छी कीमत चुकाते हैं। अच्छी कमाई से, हम अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर अधिक खर्च कर पाते हैं।”

क्योंकि भोजन की कीमतें बढ़ रही हैं, महिलाएं अपनी आय का एक हिस्सा अपनी सब्जियां उगाने के लिए भी इस्तेमाल कर पाती हैं। कुछ अपने घर के पिछवाड़े में 18 तक किस्मों की सब्जियां उगाती हैं। 

मिशन के अधिकारी, श्रीनिबास दास कहते हैं – “अब बच्चे, गर्भवती महिलाएं और स्तनपान कराने वाली माताएं विविध पौष्टिक भोजन का सेवन करती हैं।”

बस इतना ही नहीं है। महिलाएं बची हुई सब्जियां स्थानीय बाजार में बेचती भी हैं, जिससे अतिरिक्त आमदनी होती है।

कुछ सदस्य बकरियां और मुर्गियां भी खरीद पाए हैं, जिससे उनके परिवार को दूध, मांस और अंडे उपलब्ध होते हैं।

जैसा कि खूंटा के खंड विकास अधिकारी मानस रंजन सामल का कहना है, कम लागत वाला पर्यावरण के अनुकूल जल-कृषि मॉडल, ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को फिर से शुरू करता है और लोगों की हालात से निपटने की क्षमता बढ़ाता है।

सामल कहते हैं – “क्योंकि समुदाय आधारित जल-कृषि, समुदाय के स्वामित्व को बढ़ावा देती है, इसलिए यह सूक्ष्म-पोषण और प्रति व्यक्ति आय में सुधार करने और ग्रामीण क्षेत्रों में मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को कम करने में मदद करेगी।”

अभिजीत मोहंती भुवनेश्वर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।