आखिर विकास का यह विचार किसका है?

and

दो विकास पेशेवरों का एक विस्थापित गांव का दौरा, विकास को लेकर व्यापक प्रश्नों की एक श्रृंखला को जन्म देता है। विकास को कैसे माना जाता है और कैसे इसका अभ्यास किया जाता है, इसे लेकर वे अपनी दुविधाएं साझा करती हैं।

सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे आदिवासी समुदायों के बच्चों का जिक्र करते हुए एक पटेल व्यवसायी ने कहा – “वे टाई और पैंट पहनेंगे और उन्हें सभ्य होना सिखाया जाएगा।”


इस टिप्पणी ने हमारे लिए विचारों का एक पिटारा खोल दिया। सभ्य होने का क्या मतलब है? क्या चम्मच और कांटे से खाना खाने से इंसान सभ्य हो जाता है? या कपड़े हैं या उनके बात करने का तरीका है? और इससे भी महत्वपूर्ण बात – कौन तय करता है कि सभ्य का मतलब क्या है?


विकास के प्रयासों में ‘गोरे आदमी का बोझ’


एक राष्ट्र के रूप में, हम अभी भी अपनी पहचान की तलाश करने की प्रक्रिया में हैं।

जो शक्तिशाली हैं – शिक्षित, उच्च वर्ग, उच्च जाति से – वे हाशिए पर जीने वाले लोगों को बताते हैं कि अपना सशक्तिकरण कैसे करें। शायद भारत में लम्बे समय तक साम्राज्यवाद रहने के कारण, हाशिए पर जीवन जीने वाले लोगों के उत्थान के लिए चल रहे प्रयासों में, ‘गोरे आदमी का बोझ’ अब भी दिखाई देता है।

विकास पेशेवर के रूप में हमारे कई वर्षों के काम में, हमने लोगों पर विकास थोपने की घटनाएं देखी हैं; शायद यह मानते हुए कि वे नहीं जानते कि उनके लिए सबसे अच्छा क्या है।

हम निरंतर रूप से इन विचारों से जूझते हैं कि हमें किसी और के बारे में फैसले लेने की ताकत किसने दी? और हम कैसे जानें कि हम उनके सर्वोत्तम हित के लिए काम कर रहे हैं?

(यह भी पढ़ें: ग्रामीण भारत के भूरे और विकट रंग)

एक बांध परियोजना द्वारा विस्थापित, पूरे गांव की भयावह तस्वीर सवाल खड़ा करती है कि विकास किसके लिए है|
एक बांध परियोजना द्वारा विस्थापित, पूरे गांव की भयावह तस्वीर सवाल खड़ा करती है कि विकास किसके लिए है (फोटो – स्मृति गुप्ता के सौजन्य से)

वंचित लोगों के उत्थान के अपने प्रयासों में, हम उनसे कभी नहीं पूछते कि बेहतरी के बारे में उनका क्या विचार है। या इस पर प्रतिक्रिया लें कि विकासात्मक प्रयास उनके जीवन को कैसे प्रभावित करते हैं। ब्राजील के समाजशास्त्री पाउलो फ्रायर ने अपनी पुस्तक ‘पेडागॉजी ऑफ द ओप्रेस्ड’ में  कहा है – “अपनी मुक्ति के संघर्ष में उत्पीड़ित को अपना उदाहरण स्वयं होना चाहिए।”

उदाहरण के लिए बांधों को लेते हैं। राजनेताओं और अर्थशास्त्रियों ने समान रूप से, बांधों को प्रगति के वाहन के रूप में प्रस्तुत किया है। यह भी एक लोकप्रिय धारणा है कि बांध देश के भविष्य को बेहतर बना सकते हैं।

बांध और व्यापक विस्थापन

हम अपने घरों को इतना कीमती समझते हैं। एक घर के निर्माण में हम वर्षों लगाते हैं।

मध्य प्रदेश के धार जिले में, नर्मदा नदी के पास, हम सरदार सरोवर बांध परियोजना से बर्बाद हुए एक गाँव के पास से गुजरे। वहां का नज़ारा एक भूतिया तस्वीर पेश कर रहा था।


बांध निर्माण से पानी भर जाने के कारण, ग्रामवासियों को वहां से हटा दिया गया था। ऐसा लगता है कि विकास के नाम पर पूरे गांव को उजाड़ दिया गया है।

निश्चित रूप से, कोई भी उस जमीन को नहीं छोड़ना चाहता, जिस पर उनके पूर्वजों ने खेती की और पालन-पोषण किया था। कोई भी स्वेच्छा से अपने घरों को नहीं छोड़ेगा और विस्थापित होने के लिए सहमत होगा।

में बैठे लोगों द्वारा लिए गए फैसलों के कारण, परिवार अपनी पुश्तैनी जमीन पर बना अपना घर छोड़ने को मजबूर हैं|
में बैठे लोगों द्वारा लिए गए फैसलों के कारण, परिवार अपनी पुश्तैनी जमीन पर बना अपना घर छोड़ने को मजबूर हैं (फोटो – सोहिनी ठाकुरता के सौजन्य से)

अपनी जमीन और जिस समुदाय के साथ आप पले-बढ़े हैं, उससे अलग होना और सरकार द्वारा आवंटित नई जगह रहना शुरू करना – यह आसान नहीं है।

एक बूढ़ी, कमजोर औरत को अपने घर के खंडहरों पर जाते देखकर हमारा दिल टूट गया। हो सकता है, वह किसी ऐसी चीज़ की तलाश कर रही थी, जिसे उसने अपने घर में संभाल कर रखा था।


सरकार के लिए यह बस एक गांव है, जो विस्थापित हो गया। यह एक लागत-लाभ मूल्यांकन है, जहां लाभ विस्थापन की लागत से काफी ज्यादा हैं। हालांकि, विस्थापन के कारण होने वाले लंबे पीढ़ियों तक होने वाले आघात को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

विकासः बेजुबान को सक्षम बनाना

हम में से कम से कम एक, अपने जीवन के अनुभव से विस्थापन के आघात की पुष्टि कर सकता है।

हममें से एक के परिवार को, सत्तासीन लोगों द्वारा लिए गए फैसलों के कारण, अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। हमने पीढ़ियों तक इस विस्थापन के नतीजों को महसूस किया।

किसी भी विकास कार्य के दीर्घकालीन परिणाम होते हैं। और हम इस समय जलवायु सम्बन्धी कीमत तो सोच भी नहीं रहे, जो एक बिल्कुल नया मुद्दा है।


जिन लोगों के विकास के लिए ये प्रयास किए जा रहे हैं, उनसे परामर्श करना और उनकी बात ध्यान से सुनना जरूरी है। बेजुबानों की सुनवाई सुनिश्चित करना, सत्ता में बैठे लोगों की जिम्मेदारी है। उनके इशारों को समझना और उपयुक्त मंच प्रदान करके उन्हें अपनी बात रखने देना।

(यह भी पढ़ें: क्या ग्रामीण भारत में अवसरों और आकांक्षाओं के लिए मैदान समान है?)

स्मृति गुप्ता और सोहिनी ठाकुरता मध्य प्रदेश के छतरपुर में  ‘एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट फेलो’ हैं।00