हाथी और मधुमक्खी: क्या मेघालय और त्रिपुरा के लिए कुछ सबक हैं?

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मधु मक्खियों, हाथियों और रबड़ के बागानों से बना एक वातावरण, आदिवासी परिवारों को अतिरिक्त आय कमाने में सक्षम बना रहा है। यहां के. शिवामुथुप्रकाश और संजीव फणसळकर उस आकर्षक परियोजना का वर्णन करते हैं, जो इस वातावरण की सुविधा प्रदान करती है।

अर्थशास्त्र में मधुमक्खी पालन और बाह्यता

अर्थशास्त्र में “बाह्यता” की अवधारणा की व्याख्या करने के लिए, एक खास उदाहरण है – एक सेब का बाग और बगल में एक मधुमक्खी पालक।

मधुमक्खी पालक के छत्तों से निकल कर मधुमक्खियां सेब के पेड़ों को सेचित करती हैं, जिससे सेब की अच्छी पैदावार होती है और सेब के बाग का मालिक खुश होता है। इसी तरह, मधुमक्खियां सेब के रस का सेवन करती हैं और ज्यादा शहद पैदा करती हैं और इसलिए मधुमक्खी पालक खुश होता है।

लेकिन इसमें हाथी कहाँ से आ गए?

मिलिए मलप्पुरम के हाथियों से

मलप्पुरम जिले के दक्षिण में, एक घना जंगल है, जो ‘नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व’ का एक हिस्सा है। यहां हाथी खुलेआम घूमते हैं और घास और दूसरे जंगली पौधे खाते हैं। जिले का कुल क्षेत्रफल 3500 वर्ग किमी से ज्यादा है, इसके 20% से कुछ ज्यादा में वन है। लगभग 325 वर्ग किमी वन बायोस्फीयर रिजर्व में पड़ता है।

जिले का जनसंख्या घनत्व 1100 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जो राज्य भर के मुकाबले ज्यादा है और पूरे भारत के घनत्व के मुकाबले दोगुने से भी ज्यादा है। इस संयोजन के परिणामस्वरूप मानव-जानवर संघर्ष निश्चित है, विशेषकर बाहरी वन क्षेत्र में।

मधुमक्खी पालन – पुनर्वास में एक आय-स्रोत

कट्टुनैकर और पनियार समुदाय जिले के जंगलों में या उसके आसपास रहते हैं। चलियार नदी में 2018 और 2019 में आई बाढ़ ने उनके पर्यावरण और आजीविका को तबाह कर दिया।

उन्हें फिर से बसाने और अपने पैरों पर खड़े होने में मदद के लिए किए जा रहे लगातार प्रयासों में ‘एक्सिस बैंक फाउंडेशन’ सहयोग कर रहा है।

आदिवासी परिवारों की पूरक आय के स्रोत के रूप में, जो कदम उठाए जा रहे हैं, मधुमक्खी पालन को बढ़ावा देना उनमें से एक है।

एक्सिस बैंक फाउंडेशन की आर्थिक मदद से, इस क्षेत्र में कार्यरत नागरिक समाज संगठन ‘कीस्टोन फाउंडेशन’ (KF) ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया है।

मधुमक्खी पालन के लिए इच्छुक प्रत्येक चिन्हित लाभार्थी को, मधुमक्खियों की कॉलोनी शुरू करने के लिए दो बॉक्स दिए जाते हैं। मधुमक्खियाँ जंगल में रसपान करती हैं और कॉलोनी बढ़ती जाती है।

समय के साथ, प्रतिभागियों ने अपने स्टॉक को 5-6 बक्से तक बढ़ा दिया है। कुछ के तो और भी ज्यादा हैं। दिक्कत तब खड़ी होती है, जब रानी मधुमक्खी अपनी ही कॉलोनी को “त्याग” कर चली जाती है।

कॉलोनी को फिर से बसाने के लिए क्या किया जाए? ऐसे मामलों में और इस कार्यक्रम की पहुंच का विस्तार करने के लिए, KF ने वन विभाग की अनुमति से, नीलांबुर के आरक्षित वन में “मधुमक्खी नर्सरी” की स्थापना की है।

रबड़ के पौधों के साथ मधुमक्खी कॉलोनियां फिर से स्थापित करने में चुनौतियाँ

इसे करने का तरीका दिलचस्प था। उन्होंने नर्सरी के लिए रबड़ के एक बागान को चुना। KF के परियोजना समन्वयक, श्री रामचंद्र कहते हैं – “रबड़ के पौधों में पुष्प-रस बहुत ज्यादा होता है। मधुमक्खियां उन पर रसपान कर सकती हैं और इसलिए रबड़ का बागान मधुमक्खी पालन के लिए एक बेहतरीन जगह है।”

हमने आरक्षित वन के प्रवेश द्वार के काफी नजदीक के एक गांव में इस स्थल का दौरा किया। ग्रामवासियों का पारम्परिक व्यवसाय “महावत” का काम था। उन्होंने एक पुराण ढांचा भी दिखाया, जहां जंगली हाथियों को प्रशिक्षित किया और उन्हें वश में किया जाता था। इस जगह का अब इस्तेमाल नहीं होता है।

हमें बताया गया कि नर्सरी में 300 बॉक्स हैं। प्रत्येक बॉक्स को लगभग 3 फीट ऊंचे, बांस या लोहे के एंगल के सहारे रखा गया है। इससे शहद निकालना बहुत आसान हो जाता है। यह कॉलोनी काफी हद तक भारतीय मधुमक्खी (Apis cerena indica) की है। दूसरी जगहों पर, KF ने मधुमक्खी की अन्य किस्मों को पालने के लिए भी प्रोत्साहित किया है, जिसमें डंक-रहित मधुमक्खी और बौनी मधुमक्खी (Cheruthen eeacha), दोनों शामिल हैं।

घने जंगल के बीच में रबड़ के बागान में मधुमक्खी की नर्सरी का यह संयोजन हमें काफी आकर्षक लगा। आगंतुकों को सीधे छत्ते से लिए गए शहद की दावत दी गई।

छत्ते का एक हिस्सा काट कर आपको दे दिया जाता है। जब आप इसे खाते हैं, तो शहद टपकता है। अंत में सिर्फ मोम रह जाता है, जिसे आपको थूकना है।

मधुमक्खी पालन से जहां हाथियों से रबड़ के बागानों की रक्षा होती है, वहीं आदिवासी परिवारों की आय में वृद्धि भी होती है।
मधुमक्खी पालन से जहां हाथियों से रबड़ के बागानों की रक्षा होती है, वहीं आदिवासी परिवारों की आय में वृद्धि भी होती है।

तभी मेरे मन में एक विचार आया। क्या शहद के लालच में हाथी  वहां नहीं आएंगे? इस जंगल में हाथियों के काफी झुंड घूमते थे। उनके लिए इस तरह की बाधाओं से निपटना कोई समस्या नहीं थी।

हमने ऐसी कहानियाँ सुनी थीं कि कैसे हाथी गन्ने के खेत में घुस जाते हैं, और जब तक वे गन्ने को पूरी तरह खत्म नहीं कर लेते, तब तक वहां से हिलते नहीं हैं! उन्हें मीठी चीजें पसंद होती हैं। वे शहद को कहां छोड़ेंगे?

मधुमक्खियां उन्मादी हाथियों से कैसे बचाती हैं

श्री रामचंद्रन ने तब मुझे बताया कि छोटी-छोटी मधुमक्खियां हाथियों से टक्कर लेती हैं! असल में, मधुमक्खियां उनके सूंड और कानों पर डंक मार सकती हैं, जिससे उनको बहुत तकलीफ़ होती है।

सूंड पर काटे जाने की तकलीफ़, हाथियों को मधुमक्खी के छत्तों या बक्सों से दूर रखने के लिए काफ़ी है। और इसलिए रबड़ का बागान भी सुरक्षित रहता है। दरअसल, हाथियों की घुसपैठ रोकने के लिए, खास “मधुमक्खी बाड़” बनाने पर प्रयोग किए जा रहे हैं।

अब हमारे पास बाह्यताओं की एक बेहतरीन जोड़ी का संयोजन है। रबड़ के फूलों का ज्यादा पराग मधुमक्खियों को खाने को मिलता है, जिससे वे ज्यादा शहद का उत्पादन करती हैं। और मधुमक्खियां रबड़ के बागानों में हाथियों की घुसपैठ रोकती हैं।

त्रिपुरा और मेघालय राज्य अपने क्षेत्र में पूर्वी हिमालय की पहाड़ियों की ढलानों पर, रबड़ के बागान लगा रहे हैं। ये भी वहां के आदिवासी लोगों की आजीविका के लिए किया जा रहा है।

मधुमक्खी पालन निश्चित रूप से उनकी आय में योगदान देगा। और यह रबड़ के बागानों को हाथियों से बचाएगा। इस पर गौर करना और रबड़ के बागान के साथ मधुमक्खी पालन के मिश्रण के इस मॉडल का पालन करना उनके लिए अर्थपूर्ण है!

संजीव फणसळकर ‘विकास अण्वेष फाउंडेशन’ के निदेशक हैं। वह पहले ‘ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फणसळकर ‘भारतीय प्रबंधन संस्थान’ (IIM) अहमदाबाद के फेलो हैं।

के. शिवामुथुप्रकाश IIT, Bombay से पीएचडी हैं और वर्तमान में विकास अण्वेष फाउंडेशन में काम करते हैं।