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‘मैं जंगलों के बिना नहीं रह सकती’

वन्यजीव जीवविज्ञानी प्राची मेहता अपने स्कूल के दिनों से ही जंगलों और वन्यजीवों की ओर आकर्षित रही हैं। जंगल, जहां बहुत सी महिलाएं घूमने से हिचकिचाती हैं, उनका जुनून है, जहां वह अपने पुणे स्थित संगठन, ‘वाइल्डलाइफ रिसर्च एंड कंजर्वेशन सोसाइटी’ के माध्यम से, अपने पति के साथ अपना वन्यजीव शोध और संरक्षण कार्य करती हैं।

पुणे, महाराष्ट्र

मुंबई में पले-बढ़े एक बच्चे के रूप में, कला से जुड़ी सभी चीजों से मेरा बहुत संपर्क था। मेरा परिवार शास्त्रीय संगीत और साहित्य से जुड़ा था। सितार शिक्षक का घर में नियमित रूप से आना जाना था। और नियमित रूप से संगीत कार्यक्रमों में भाग लिया जाता था।

लेकिन मुझमें जंगलों के प्रति एक प्रवृत्ति थी, जिसका पता मुझे तब चला, जब मैं लगभग 15 साल की उम्र में स्कूल के प्रकृति शिविरों में जाने लगी।

कॉलेज में जाने पर भी मेरा जुनून जारी रहा। जिस रामनारायण रुइया कॉलेज में मैं पढ़ती थी, वहाँ एक बेहतरीन प्रकृति क्लब था। मैंने इसमें दाखिला लिया और जाने माने प्रकृतिविदों को बहुत ध्यान से सुना।

बर्ड वॉचिंग का जुनून इसके एकदम बाद आया। मुंबई के बाहरी इलाके का संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान मेरा पसंदीदा अड्डा बन गया।

मेरा परिवार सदमे में था। वे मेरे संगीत समारोहों में भाग लेने को समझ सकते थे, लेकिन जंगलों में समय बिताना उन्हें समझ नहीं आ रहा था।

मुझे गहरे काले आकाश में टिमटिमाते तारों को देखना भी अच्छा लगता था। इसलिए मैंने एक स्टार गेजिंग क्लब का पता लगाया और उसमें शामिल हो गई।

ज्यादातर परिवार लड़कियों को घर से बाहर रात बिताने की इजाजत नहीं देते। लेकिन मेरे पिता ने मेरी रुचि को भांप लिया और उन्होंने मुझे कभी नहीं रोका।

मैं स्वछन्द और अप्रत्याशित व्यवहार वाली व्यक्ति हूँ। एक बार भारी बारिश के कारण मुंबई में ट्रेनें रद्द कर दी गई थीं। लेकिन इसने मुझे बाहर निकलने से नहीं रोका। मैंने बिना परवाह किये अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए एक लंबा रास्ता तय किया।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि मैंने एक पारिवारिक समारोह को छोड़ कर पूरे वृंदावन, मैसूरु और बेंगलुरु की यात्रा के लिए निकल गई? उन दिनों मोबाइल फोन नहीं होते थे। मेरा परिवार बेहद चिंतित था और घर लौटने के बाद मुझे डांट पड़ी। प्रकृति और जंगल के लिए मेरा जुनून ऐसा था।

मुझे एहसास हुआ कि मैं जंगलों के बिना नहीं रह सकती।

इसलिए स्नातकोत्तर डिग्री के बाद मैंने पीएचडी के लिए देहरादून के भारतीय वन्यजीव संस्थान में दाखिला ले लिया। सोचिए मुझे कितनी हैरानी हुई होगी, जब मुझे पता चला कि चुने गए छह उम्मीदवारों में मैं अकेली लड़की थी।

हालांकि मैं अभी-अभी पीलिया से ठीक हुई थी, फिर भी मैंने अपना शोधकार्य शुरू करने में कोई समय बर्बाद नहीं किया।

मेरा शोध महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश के मध्य भारतीय परिदृश्य में पक्षियों के सामुदायिक अध्ययन पर केंद्रित रही। वर्ष 2000 में मैंने पीएचडी पूरी की और अपने पति से मिली, जो उस समय वन अधिकारी थे।

उन्होंने मुझे विवाह-प्रस्ताव दिया। जंगल में, बेशक जंगल में।

भारत में वन्यजीव संरक्षण धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा था।

इसलिए शादी के बाद मैंने और मेरे पति ने कुछ ऐसा करने का फैसला किया, जो हमारे दिल के करीब था। हमने 2005 में पुणे में अपना स्वयं का संगठन, ‘वाइल्डलाइफ रिसर्च एंड कंजर्वेशन सोसाइटी’ शुरू किया।

शादी के बाद भी फील्ड के कामों में ज्यादा बदलाव नहीं आया। मैंने पक्षियों का अध्ययन जारी रखा। मैं अपने पति के साथ जंगलों में जाती थी। मैं अपनी बेटी अंतरा को साथ ले जाती थी। मेरी नौकरानी भी बच्चे की देखभाल के लिए मेरे साथ यात्राओं पर जाती थी।

मैं हमेशा बाहर रहना चाहती हूँ।

चील और उल्लू जैसे शिकारी पक्षी मेरे जुनून को और हवा देते हैं। मुझे महाराष्ट्र के मेलघाट टाइगर रिजर्व में उल्लुओं को टैग करना और उन पर नज़र रखना बहुत पसंद है। मैं काम के लिए हमेशा मेलघाट चली जाती हूँ।

मुझे हाथी भी पसंद हैं और मैंने इंसान-जानवर संघर्ष समाधान पर कर्नाटक में काम किया है।

मैंने जीवन में जोखिम उठाए हैं और खूब मौज की है।

मुझे काफी आजादी मिली है, जो बहुत अच्छी बात है। भारत में ज्यादातर महिलाओं को, खासकर फील्ड के काम के लिए, परिवार का सहयोग नहीं मिलता। इस तरह से मैं भाग्यशाली हूँ।

मुझे उम्मीद है कि ज्यादा और ज्यादा महिलाएं वन्यजीव संरक्षण में शामिल होंगी।

फोटो – प्राची मेहता के सौजन्य से।

दिल्ली स्थित पत्रकार, दीपन्विता गीता नियोगी की रिपोर्ट।