स्वादिष्ट आदिवासी व्यंजन बने महिलाओं की आजीविका

पूर्वी सिंहभूम, झारखंड

झारखंड में एक आदिवासी त्योहार असली आदिवासी व्यंजनों को लोकप्रिय बनाता है, जिससे पारम्परिक व्यंजनों का संरक्षण सुनिश्चित होता है और आदिवासी महिलाओं को अपने अनूठे भोजन परोस कर धन कमाने के अवसर तलाशने में मदद मिलती है।

पूर्वी सिंहभूम जिले के करंडीह गांव के एक संथाली आदिवासी महिला, बोंगा मुर्मू ‘जिल पीठा’ बनाते हुए अपनी ख़ुशी को छिपा नहीं पाई, जो झारखंड के ग्रामीण समुदाय का एक अनूठा व्यंजन है।

व्यंजन तैयार करते हुए वह कहती हैं – “हम यह व्यंजन धान की कटाई और दिवाली जैसे त्योहारों में बनाते हैं।”

पकाए हुए चिकन और चावल के आटे को मिलाकर, इसमें से कुछ उन्होंने साल के पत्ते से बनी प्लेट पर रखा और उसे दूसरी साल के पत्ते की प्लेट से ढक दिया। लगभग 20 मिनट तक तवे पर भूनने के बाद उन्होंने गर्मा गर्म जिल पीठा को चटनी के साथ परोसा।

मुर्मू उत्साहित थी, क्योंकि वह अपने परिवार को नहीं, बल्कि घर से दूर एक स्थान पर अजनबियों को यह व्यंजन परोस रही थी।

बोंगा मुर्मू और उनकी सहायक, तवे पर जिल पीठा बनाने के लिए साल के पत्ते की प्लेट तैयार कर रही हैं (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

जमशेदपुर शहर के उस आदिवासी उत्सव, ‘आतिथ्य’ में अपने अनूठे पारम्परिक व्यंजन पकाने वाली आदिवासी ‘घरेलू रसोइया (होम शेफ)’ में से एक थीं, जो झारखंड के आदिवासी व्यंजनों को प्रदर्शित करता है।

आदिवासी व्यंजनों का उत्सव

आदिवासी व्यंजनों में, जिनमें कुछ के नाम विचित्र हैं, उन में पनीर और हरी मिर्च से भरे अनाज के पैनकेक, ‘खू रे खू’ और साल के पत्तों में लपेट कर तवे पर सेका गया चिकन, ‘जिल लैड’ शामिल हैं।  

आदिवासियों का मलाईदार टमाटर सूप का अपना रूप ‘कारा कनी’ है, जिसे सरसों के बीज के साथ मिला कर बनाया जाता है। .

शहरों में रहने वाले लोग खीर खाते हैं, लेकिन हम इसे महुआ के फूल से बनाते हैं। इसका स्वाद तो बहुत स्वादिष्ट होता है, लेकिन शहरों में लोग इसके बारे में नहीं जानते।

उनकी मिठाइयाँ महुआ खीर और ‘डबू’, जो गुड़ और कसे हुए नारियल से भरी उबली हुई पकौड़ी है, भीड़ खींचने वाली थी।

जिल पीठा और जिल लैड जैसे व्यंजनों में चिकन को साल के पत्तों में लपेटकर तवे पर पकाना शामिल है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

खीर बनाने के लिए महुआ की पंखुड़ियां अलग करते हुए, लक्ष्मी हांसदा कहती हैं – “शहर में रहने वाले लोग चावल, दूध और चीनी से बनी खीर खाते हैं। लेकिन हम महुआ के फूलों से खीर बनाते हैं।”.

उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “हम चावल की जगह महुआ का उपयोग करते हैं और चीनी की जगह गुड़ का उपयोग करते हैं, क्योंकि यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। यह बहुत स्वादिष्ट होता है, लेकिन शहरों में लोग इसके बारे में नहीं जानते।”

उनकी जनजाति के बहुत से लोग मानते हैं कि महुआ स्वास्थ्य के लिए अच्छा है और रक्त के बहाव बढ़ाता है।

आजकल के स्वादानुसार भोजन

महिलाओं ने अपने व्यंजनों में उन व्यंजनों के अनुरूप बदलाव करना शुरू कर दिया है, जिनकी आजकल युवाओं के बीच मांग है।

बिसरा गांव की अमृता एक्का बाजरे के मोमोज बनाती हैं, जो रेस्तरां में मैदा से बनाए जाने वाले मोमोज से काफी अलग हैं।

एक्का कहती हैं – “उद्देश्य शहरी युवाओं को आकर्षित करना है। कई फ्रेंचाइजी अपनी शहरी दुकानों में सिर्फ पकौड़े बेचकर धन कमा रही हैं। लेकिन इस्तेमाल की गई सामग्रियां अक्सर स्वस्थपरक नहीं होती।”

लक्ष्मी हंसदा और उनकी मित्र महुआ की खीर बनाने के लिए महुआ के फूलों की पत्तियां अलग करते हुए (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

वह मैदा की जगह रागी का इस्तेमाल करती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अच्छी है।

उन्होंने विलेज स्क्वेयर को बताया – “हम घर के बगीचों में उगाई सब्जियां इस्तेमाल करते हैं और हम अपना खुद का मसाला बनाते हैं और लोगों को एक स्वस्थ विकल्प प्रदान करते हैं। हमने उनका नाम ‘मढ़वा मोमो’ रखा है। 

स्वादिष्ट आदिवासी व्यंजन

स्वाभाविक है एक्का ने ‘आतिथ्य’ में रागी उर्फ मढ़वा मोमो पेश किए।

जिन लोगों ने मोमो और अन्य आदिवासी व्यंजनों का स्वाद चखा, वे सभी महिलाओं की प्रशंसा कर रहे थे।

जमशेदपुर स्थित एक व्यवसायी, सत्येंद्र सिंह कहते हैं – “हमने स्टार होटलों और महंगे भोजनालयों में भोजन का स्वाद चखा है, लेकिन ऐसे लाजवाब व्यंजन कभी नहीं देखे। खाना स्वादिष्ट है। हम बरसों से झारखंड में रह रहे हैं, लेकिन ऐसे ग्रामीण भोजन के बारे में कभी नहीं सुना था।”

रागी के पकौड़े तैयार करते हुए अमृता एक्का (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

स्थानीय युवक, विजय प्रसाद जैसे बहुत से आगंतुकों ने महसूस किया कि इस तरह के देशी व्यंजन समृद्ध आदिवासी विरासत को प्रतिबिंबित करते हैं और इसे संरक्षित करने की जरूरत है।

यही कारण है कि टाटा स्टील फाउंडेशन ने ‘आतिथ्य फूड फेस्टिवल’ का आयोजन किया। यह एक आदिवासी सम्मेलन, ‘संवाद’ का अगला चरण है, जो 2014 से हर नवंबर में आयोजित किया जाता है।

टाटा स्टील फाउंडेशन की शुव्रा आर ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “‘आतिथ्य’ 2017 में शुरू किया गया था, क्योंकि हमने देखा कि आदिवासी रसोई से ज्यादातर व्यंजन धीरे-धीरे गायब हो रहे थे, क्योंकि लोग आधुनिक खाद्य पदार्थों का उपभोग कर रहे थे। हम आदिवासी भोजन को पुनर्जीवित करना चाहते थे।” 

आदिवासी महिलाओं के लिए एक नई आजीविका

शुव्रा के अनुसार, इस आयोजन का उद्देश्य आदिवासी महिलाओं के लिए आजीविका पैदा करना भी है।

‘घरेलू रसोइयों’ में से एक, माया सोरेन कहती हैं – “हमारे व्यंजन लोगों को स्वस्थ भोजन प्रदान करते हुए हमें कमाई करने में मदद कर सकता है।”

रागी के पकौड़े शहरी लोगों के स्वाद के अनुरूप भी हैं (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

एक्का राउरकेला के बाहरी इलाके में एक छोटे से भोजनालय में काम करती है और लोगों को अपने रागी के पकौड़े परोसती है।

विजय प्रसाद के अनुसार, आदिवासी भोजन ग्रामीण पर्यटन उत्पन्न करने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। उन्होंने इसे बढ़ावा देने का सुझाव दिया, ताकि महिलाओं को आजीविका मिल सके।

लेकिन महिलाएं पहले से ही अपने व्यंजन जगह-जगह पहुँचा रही हैं।

शुव्रा कहती हैं – “ताज ग्रुप जैसे कॉरपोरेट होटल इन महिलाओं को अपने किचन में आदिवासी खाना पकाने की इजाजत देकर उनका सहयोग कर रहे हैं।”

आदिवासी व्यंजनों को लोकप्रिय बनाना

आदिवासी महिलाओं के साथ साथ आगंतुकों ने भी इस व्यंजन को लोकप्रिय बनाने की जरूरत व्यक्त की।

शुव्रा ने कहा – “हमारा लक्ष्य आदिवासी भोजन के बारे में अधिक जागरूकता पैदा करने के लिए, देश भर में 15 ऐसे आदिवासी व्यंजन कार्यक्रम आयोजित करने का है।”

माया सोरेन और बोंगा मुर्मू के अनुसार, ‘आतिथ्य’ जैसे आयोजनों ने न सिर्फ उनका आत्मविश्वास बढ़ाया है, बल्कि उन्हें शहरी लोगों को असली आदिवासी भोजन परोसने का मौका भी दिया है।

माया सोरेन और अन्य घरेलू रसोइये, त्योहारों को असली आदिवासी भोजन प्रस्तुत करने के अवसर के रूप में देखते हैं (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

फ़ूड ब्लॉगर भी ऐसे आयोजनों के माध्यम से अक्सर आदिवासी व्यंजनों को प्रदर्शित करने की वकालत करते हैं।

कोलकाता के प्रसिद्ध फ़ूड ब्लॉगर, इंद्रजीत लाहिड़ी ने बताया – “यहां कई जनजातियाँ हैं, लेकिन हम उनके बारे में या उनके भोजन के बारे में ज्यादा नहीं जानते। ऐसे त्योहारों को नियमित रूप से आयोजित करना महत्वपूर्ण है, ताकि उनके भोजन को पहचान मिले और यह उनके लिए आजीविका का स्रोत बन जाए।”

सत्येन्द्र सिंह ने सुझाव दिया कि सरकार को आगे आना चाहिए और ऐसे खाद्य-उत्सवों का आयोजन करना चाहिए।

इस लेख के शीर्ष पर मुख्य फोटो में बोंगा मुर्मू को ‘सेका हुआ जिल पीठा’ बनाने के लिए, साल के पत्तों की प्लेटों पर सामग्री तैयार करते दिखाया गया है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।