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300 कारीगरों के बीच मैं अकेली महिला मूर्तिकार हूँ

जब कम आयु में नमिता सर विधवा हुई, तो अपने पिता से सीखी मूर्ति बनाने की कला उनके काम आई। इस साल कुछ अच्छे ऑर्डर मिलने के साथ, महामारी की मंदी के बाद दुर्गा पूजा उनके जीवन में रंग ला रही है।

हावड़ा, पश्चिम बंगाल

मेरा जन्म कारीगरों के एक परिवार में, आठ बच्चों में चौथी संतान के रूप में हुआ था। मेरे पिता एक मूर्तिकार थे।

आप कल्पना कर सकते हैं कि मेरे पिता की आय से इतना बड़ा परिवार चलाना कितना मुश्किल था।

मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी, जब मुझे अपने घर के पास रहने वाले एक युवक से प्यार हो गया।

हमारी शादी 2000 में हो गई, जब मैं सिर्फ 16 साल की थी। मेरे पति मुझसे 12 साल बड़े थे।

वह हमारे घर से कुछ किलोमीटर दूर, हावड़ा जिले के ‘प्रशस्त’ गांव में एक जलपान की दुकान चलाते थे।

हम खुश थे, क्योंकि आमदनी हमारे परिवार को चलाने के लिए काफी थी। अगले ही साल हमें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।

हम शांतिपूर्ण जीवन जी रहे थे। 

कभी-कभी मैं अपने परिवार की आय में योगदान के लिए अपने खाली समय में मूर्तियाँ बनाती थी। मैंने यह कला अपने पिता से सीखी थी।

लेकिन जल्दी ही दुर्भाग्य ने हमें घेर लिया, जब मेरे पति हृदय और गुर्दे की समस्याओं से पीड़ित होने लगे। हमने उन्हें सबसे अच्छा उपचार देने की कोशिश की और उन्हें विशेषज्ञ डॉक्टरों के पास ले गए। जब वह बीमार थे, तो हमने जलपान की दुकान बंद कर दी थी, क्योंकि उनके लिए हर दिन दुकान पर जाना संभव नहीं था।

मुझे यकीन था कि वह ठीक हो जाएंगे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। 

2016 में उनकी मृत्यु हो गई।

मेरा बेटा सिर्फ 15 साल का था। हम बिल्कुल अकेले थे। हमने अपने परिवार का कमाऊ सदस्य खो दिया था।

मेरे पति की मृत्यु का मतलब था कि आय का कोई साधन नहीं बचा था।

मुझ पर अपने बेटे के पालन-पोषण की जिम्मेदारी आ गई।

फिर एक दिन मुझे यह अहसास हुआ कि मेरे पास मूर्तियाँ बनाने की कला है। पैसे कमाने के लिए इसका उपयोग क्यों न करें?

इसलिए मैंने मूर्तियाँ बनाना शुरू किया। जल्द ही मेरा व्यवसाय बढ़ गया और मुझे और मजदूर काम पर रखने पड़े। मेरे पति के निधन के बाद से, मैं मूर्तियां बनाकर अपना परिवार चला रही हूँ।

मैं गर्व से कह सकती हूँ कि 300 मूर्ति बनाने वाले कारीगरों के इस गांव में मैं अकेली महिला मूर्तिकार हूँ।

मुझे लैंगिक आधार पर कभी भी किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। मेरे साथी कारीगरों ने हमेशा मेरा सहयोग किया है।

मेरे बेटे ने अब दसवीं कक्षा पास कर ली है और वह अब मेरे काम में मेरी सहायता करता है।

इस साल मुझे दुर्गा पूजा की मूर्तियों के अच्छे ऑर्डर मिले हैं।

महामारी के कारण दो साल तक कारोबार बुरी तरह प्रभावित होने के बाद हालात सुधर रहे हैं।

मैं अकेले ही 9-12 फीट तक ऊंची मूर्तियां बना सकती हूँ।

लेकिन दूसरी वस्तुओं के साथ साथ, मिट्टी, पुआल और बाँस जैसे कच्चे माल की लागत में वृद्धि हमारे मुनाफे को खा रही है, क्योंकि पूजा आयोजक धन की कमी का हवाला देते हुए ज्यादा पैसा खर्च करने को तैयार नहीं हैं।

लेकिन मुझे खुशी है कि महामारी के बाद मेरा व्यवसाय पुनर्जीवित हो गया है।

यदि इस साल हम उत्पादन लागत वसूल कर लें, तो मुझे खुशी होगी, हालांकि हमें अगले साल मुनाफे की उम्मीद है।

मैं सच्चे दिल से देवी दुर्गा से प्रार्थना करती हूँ कि वह हम सब को स्वस्थ और सुरक्षित रखें, जो भौतिक वस्तुओं से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

मुख्य फोटो में मूर्ति बनाने वक्त सूक्ष्म विवरणों पर ध्यान देते हुए दिखाया गया है (फोटो – ‘एसोफ़नेट, अनस्प्लैश’ के सौजन्य से)

कोलकाता स्थित पत्रकार गुरविंदर सिंह की रिपोर्ट। फोटो गुरविंदर सिंह द्वारा और सोनिका अग्रवाल एवं एसोफ़नेट, अनस्प्लैश के सौजन्य से।