आदिवासी फिल्मकार कम बजट में बनाते हैं शानदार फ़िल्में

पूर्वी सिंहभूम

अप्रशिक्षित और युवा आदिवासी फिल्म निर्माता ग्रामीण भारत की सामाजिक बुराइयों और पर्यावरण संबंधी मुद्दों को उजागर करते हैं, लेकिन धन की कमी उन्हें अपने सिनेमा को व्यापक दर्शकों तक ले जाने से रोकती है।

जब एक घिसी-पिटी कहानी को नया नजरिया दिया जाता है और अलग ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, तो वह एक आम कहानी होने की अज्ञानता को खत्म कर देती है – जैसे 500 रुपए से भी कम खर्च में नागपुरी बोली में बनी लघु फिल्म, ‘बंधा खेत’ में एक गरीब आदमी की जमीन हड़पने वाले एक सूदखोर की कहानी, जिसे आलोचकों की प्रशंसा प्राप्त हुई है। 

‘बंधा खेत’ (गिरवी खेत) एनपीके के छोटे नाम से प्रसिद्ध 25-वर्षीय पुरूषोत्तम कुमार का नवीनतम काम है, जो अप्रशिक्षित, युवा, रचनात्मक फिल्म निर्माताओं के समूह में से एक हैं और जो धन के अभाव को पछाड़ते हुए, भारत के आदिवासी देहात की फिल्मों के लिए रास्ता बना रहे हैं। 

जिस फिल्म को बनाने में बॉलीवुड के स्पॉट बॉय की दैनिक मजदूरी से भी कम लागत आई, उसने 2021 ‘अंतर्राष्ट्रीय जनजातीय फिल्म महोत्सव’ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार जीता।

लेकिन बड़ी फिल्म कथानकों के विपरीत, आदिवासी फिल्म निर्माता एक अप्रत्याशित वास्तविकता पर मंथन कर रहे हैं।

मिंकेट लेपचा जैसे युवा फिल्म निर्माता आदिवासी जीवन से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर फिल्म बनाते हैं (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

वे झकझोरने वाले सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय विषयों को उजागर करते हैं, जो एक धूर्त साहूकार, या आदिवासी मुक्ति में शिक्षा की भूमिका, या नदी के आसपास रहने वाले लोगों की आजीविका को बांधों के द्वारा निचोड़ने जैसे विविध मुद्दे हैं।

जनजातीय भारत के शेक्सपियरियन विषय

साहूकार की कहानी शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ जितनी पुरानी है, लेकिन इसकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई है। गरीबों को कर्ज के जाल में फंसाने वाले कई ‘शाइलॉक्स’ का यही खाका, झारखंड के ग्रामीण, आदिवासी इलाकों में भी चलता है।

वित्तीय संस्थाओं तक बहुत कम या कोई पहुंच न होने के कारण, गरीब अक्सर अपनी आत्मा, यानि अपनी थोड़ी-सी जमीन, गिरवी रख देते हैं।

मैंने फिल्म निर्माण का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया है और 14 मिनट की फिल्म की शूटिंग मोबाइल फोन से की है। मेरी माँ, भाई और मेरे गाँव के बच्चों ने फिल्म में अभिनय किया

सी एम मरांडी

कुमार की 19 मिनट की फिल्म, आधुनिक गुलामी का एक मूल संदर्भ प्रदान करती है, जो कहानी के साथ पूरी तरह मेल खाती है।

वह कहते हैं – “भारत के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के बाद से 75 वर्षों में गाँवों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है। निरक्षर ग्रामीणों का शोषण बड़े पैमाने पर हो रहा है। मैंने इस सच्चाई को चित्रित करने की कोशिश की है।”

भूमिकाओं में परिवार को लेकर, फ़ोन पर फ़िल्में बनाना

एक दूसरे राज्य में, एक दूसरे युवा फिल्म निर्माता ने अपने मोबाइल फोन कैमरे का रुख आदिवासी लोगों के लिए शिक्षा के महत्व की ओर किया। इसका परिणाम था, संथाली भाषा की एक लघु फिल्म – ‘इन्हुन्जोलाहा’ यानि ‘मैं भी पढूंगा’।

ओडिशा के बारीपदा के एक आदिवासी युवक, 28-वर्षीय सीएम मरांडी कहते हैं – “मैंने फिल्म निर्माण का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया है और 14 मिनट की फिल्म की शूटिंग मोबाइल फोन से की है। मेरी माँ, भाई और मेरे गाँव के बच्चों ने फिल्म में अभिनय किया। मैंने उन्हें मना लिया था।”

दार्जीलिंग की वह पहाड़ियां जहाँ चाय उगाई जाती है, वहां की मिंकेट लेपचा के लिए उनकी फिल्म ‘वॉयस ऑफ़ तीस्ता’, लेप्चा जनजाति की पूजनीय नदी पर आधारित है।

जब सामाजिक संकट कथानक बन जाते हैं

यह 41 मिनट की एक अच्छी तरह से शोध की गई डॉक्यूमेंट्री है, जो सिक्किम के पूर्वी हिमालय से निकल कर दक्षिण में पश्चिम बंगाल से होते हुए बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र में समा जाने वाली 414 कि.मी. लंबी नदी, ‘तीस्ता’ पर पनबिजली बांधों द्वारा आसपास रहने वाले लोगों के लिए उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के बारे में है।

प्रज्ञा सिंह जैसे फिल्म निर्माता, आदिवासी जीवन से जुड़े सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर फिल्म बनाते हैं (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

39-वर्षीय फ़िल्मकार प्रासंगिक और उल्लेखनीय उदाहरणों के साथ पर्यावरणीय कमजोरी को दर्शाते हुए, उन विषयों पर गहराई से प्रकाश डालती हैं, जिसमें लाखों लोगों पर पड़ने वाले आघात को कम करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है।

अनुभवहीन फिल्म निर्माता, जिनकी पहली डॉक्यूमेंट्री ने दिल्ली में 2016 के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में ‘ग्रीन फिल्ममेकर्स अवार्ड’ जीता था, कहती हैं – “मैंने 2012 तक दिल्ली में ऑफिस की नौकरी की थी। नौकरी छोड़ कर फिल्में बनाने और अपने जुनून को आगे बढ़ाने के लिए पहाड़ों में लौट आई।”

वह भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी राज्यों के 16 फिल्म निर्माताओं में से एक थी, जिन्होंने इस अगस्त में इस्पात-नगरी जमशेदपुर में आयोजित राष्ट्रीय लघु फिल्म महोत्सव, ‘समुदाय के साथ’ में अपना काम प्रदर्शित किया था। यह कार्यक्रम हर साल नवंबर में आयोजित होने वाले आदिवासी सम्मेलन ‘संवाद’ की प्रस्तावना थी।

बिना पैसे के हम अभिनेताओं को काम पर नहीं रख सकते। इसलिए हम ग्रामीणों को अपनी फिल्मों में अभिनय करने के लिए मनाते हैं। कभी-कभी हम बदले में उनके घर का काम करने का वादा करते हैं

कुमार उर्फ एनपीके

उत्सव की दो श्रेणियां हैं: संस्थागत और सामुदायिक। संस्थागत श्रेणी में पुणे के ‘फिल्म और टेलीविजन संस्थान’ और कोलकाता के ‘सत्यजीत रे फिल्म और टेलीविजन संस्थान’ जैसे पेशेवर मीडिया संस्थाओं द्वारा बनाई गई फिल्में शामिल हैं।

‘संवाद’ आयोजित करने वाली टाटा स्टील फाउंडेशन के कुमार गौरव कहते हैं – “उसके बाद बिना औपचारिक प्रशिक्षण या बड़े बजट और उपकरणों वाले फिल्म निर्माताओं द्वारा बनाई गई सामुदायिक फिल्में दिखाई जाती हैं। हम उन्हें प्रोत्साहित करते हैं।’

बजट एक जाल

ऐसे उद्योग में जहां बड़े को बेहतर माना जाता है, वहां कम बजट पर बनी और आदिवासी समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों जैसे ज्वलंत विषयों पर आधारित फिल्मों के लिए बहुत कम जगह है, जो सिनेमाघरों और मल्टीप्लेक्सों में भीड़ ला कर बॉक्स-ऑफिस पर सफलता के भ्रम से बहुत दूर हैं।

लुप्त होता जा रहा ‘बनम’ एक प्राचीन संगीत वाद्ययंत्र है, जो एक हालिया फिल्म का विषय है (फोटो – प्रज्ञा सिंह से साभार)

‘बंधा खेत’ के कुमार कहते हैं – “पैसे के बिना हम अभिनेताओं को काम पर नहीं रख सकते। इसलिए हम ग्रामीणों को अपनी फिल्मों में अभिनय करने के लिए मनाते हैं। वे मित्रभाव से ऐसा कर देते हैं। कभी-कभी बदले में हम उनके घरेलू काम करने का वादा करते हैं।”

उन्हें अपने अगले प्रोजेक्ट के लिए पैसों की जरूरत है। लेकिन अपनी फिल्म को दर्शकों तक पहुँचाने के लिए एक वितरक ढूंढना एक और बाधा है।

कुमार कहते हैं – ”मैं अपनी फिल्म टेंटों में दिखाऊंगा और गांव वालों से थोड़ा सा प्रवेश शुल्क लूंगा।”

25 वर्षीय फिल्म निर्माता प्रज्ञा सिंह का कहना है कि झारखंड में ऐसी कहानियों की भरमार है, जो बताई जानी चाहिए, लेकिन लोगों को उन्हें प्रसारित करने के लिए धन की जरूरत है।

“मैंने हाल ही में विलुप्ति के कगार पर खड़े एक प्राचीन संगीत वाद्ययंत्र ‘बनम’ पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है। ऐसे बहुत से विषय हैं, जिन्हें सही शोध और आर्थिक सहायता से सामने लाया जा सकता है।”

शालिनी मुर्मू जैसे फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं का जुनून उन्हें प्रेरणा देता है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

वे कम बजट से ऐसी फिल्में बना सकते हैं, जिसकी किसी ने कल्पना भी न की हो, लेकिन उद्देश्य तब विफल हो जाता है, जब केवल मुट्ठी भर लोग ही उन्हें देख पाते हैं। संथाली अभिनेत्री, 24-वर्षीय शालिनी मुर्मू आदिवासी सिनेमा के लिए सीमित अवसरों को स्वीकार करते हैं।

मुर्मू कहती हैं – “हमारे दर्शक झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम और ओडिशा में फैले हुए हैं। फिर भी, मुख्यधारा के संथाली सिनेमा में कोई पेशेवर निर्देशक नहीं है। हमारे यहां सिर्फ कार्यालय कर्मचारी और व्यापारी हैं। अव्यवसायी फिल्में बनाने वाले जुनून से प्रेरित शौकिया लोग हैं।

अनुभवी डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माताओं का कहना है कि युवाओं को थिएटर दर्शकों की जरूरत है, न कि सरकारी आर्थिक सहयोग की, जो उन्हें जीवनियां बनाने या लेन-देन के आधार पर प्रचार फिल्में बनाने के लिए मजबूर कर सकती है।

पिछले 25 वर्षों में 150 डॉक्यूमेंट्री बना चुके, प्रबल महतो कहते हैं – “वे सामाजिक बुराइयों और समाज के अन्य पहलुओं को सामने ला रहे हैं। इन्हें व्यापक दर्शकों तक पहुंचना चाहिए। गाँवों में मामूली और किफायती प्रवेश शुल्क वाले छोटे सभागार होने चाहिए।”

मुख्य फोटो में प्राचीन संगीत वाद्ययंत्र ‘बनम’ पर बनी प्रज्ञा सिंह की फिल्म का पोस्टर है (फोटो – प्रज्ञा सिंह से साभार)

गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।