मणिपुर के असामान्य ‘पृथ्वी के नमक’ की विरासत के लिए खतरा
मणिपुर के पारम्परिक नमक-केक आज भी अनुष्ठानों के लिए उपयोग किए जाते हैं, लेकिन पैक किए व्यावसायिक नमक के प्रसार के साथ, रोजमर्रा के उपयोग के लिए उनकी मांग कम हो गई है।
मणिपुर के पारम्परिक नमक-केक आज भी अनुष्ठानों के लिए उपयोग किए जाते हैं, लेकिन पैक किए व्यावसायिक नमक के प्रसार के साथ, रोजमर्रा के उपयोग के लिए उनकी मांग कम हो गई है।
उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर के निंगेल गांव के के. बिनॉय सिंह के खून में नमक है।
अपने पूर्वजों की तरह, उन्होंने मैतेई लोगों की उस प्रतिष्ठित कला के लिए अपना खून और पसीना एक किया है, जिसके बारे में बहुत से लोग मानते हैं कि इसे दैवीय प्रशिक्षुता में सिखाया गया था।
मनुष्यों को यह सिखाने के लिए पृथ्वी पर देवता अवतरित हुए कि झरनों से निकलने वाले नमकीन पानी को चपटे नमक के केक के रूप में कैसे जमाया जाए। उन झरनों को ‘थुमकोंग’ कहा जाता है और केक को थम्पक कहा जाता है, जिसमें ‘थम’ का मैतेई में अर्थ है नमक।
ऐसी मजबूत नींव पर टिका, थम्पक समय की मार से बच गया।
लेकिन स्वाद बदल रहे हैं।
भूमि से घिरे और समुद्र से दूर, भारत के अधिकांश उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अतीत में नमक दुर्लभ और कीमती था। यह प्रमुख व्यापारिक वस्तुओं में से एक था, जिसका उपयोग अक्सर पैसे के रूप में किया जाता था और यहां तक कि कुछ वेतन भी नमक के रूप में दिए जाते थे।
थम्पक का दर्जा सोने के बराबर था।
लेकिन आज, औद्योगिक स्तर के फार्मों में बना और अलग-अलग वजन के सुविधाजनक प्लास्टिक पैकेटों में उपलब्ध सस्ते, आम समुद्री नमक की आसान पहुंच से, इसके अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है।
इसे राज्य की राजधानी, इम्फाल से 40 लगभग कि.मी. दूर, थौबल जिले के जंगली इलाकों में बसे हरे-भरे गांव, निंगेल में प्रोविजन स्टोर्स में भी जगह के लिए प्रतिस्पर्धा करना पड़ता है।
पैक किया नमक निंगेल की नींव के विपरीत है, जहां अब केवल आठ परिवार ही पुराने तरीके से नमक बना रहे हैं। वास्तव में निंगेल थम्पक का आखिरी प्रतिरोध है।
हालाँकि नमक ने रोजमर्रा के उपयोग की वस्तु के रूप में लोकप्रियता खो दी है, लेकिन इसने सामाजिक व्यवस्था में अपना स्थान नहीं खोया है, जो भौतिक क्षेत्र से परे आध्यात्मिक क्षेत्र में उतर जाता है।
यह निश्चित रूप से एक पुराना व्यापार है। राजा लोगों को इनाम के रूप में नमक की टिकिया देते थे। हम मानते हैं कि सभी प्राकृतिक संसाधनों की दाता, देवी ‘थम लैरेम्बी’ नमक के पानी के झरनों की रक्षा करती है।
थम्पक के बिना मैतेई अनुष्ठान अधूरा है।
नवजात शिशु के जन्म या विवाह के जश्न समारोह, या किसी के निधन के बाद होने वाले संस्कार में थम्पक का उपयोग किया जाता है।
सभ्यता, साहस, प्रजनन क्षमता, प्रेम, विजय, युद्ध और ज्ञान की रक्षक, देवी ‘पंथोईबी’ को चढ़ाया प्रसाद तब तक उपयुक्त नहीं होता, जब तक कि उसमें थम्पक न डाला गया हो।
इसकी उत्पत्ति का विवरण अस्पष्ट है।
एक 50-वर्षीय नमक बनाने वाले, मुतुन मैमू कहते हैं – “यह निश्चित रूप से एक पुराना व्यापार है। राजा लोगों को इनाम के रूप में नमक की टिकिया देते थे। हमारा मानना है कि सभी प्राकृतिक संसाधनों की दाता, देवी ‘थम लैरेम्बी’ नमक के पानी के झरनों की रक्षा करती हैं।”
हर सुबह, 60-वर्षीय बिनॉय अपने घर से लगभग 700 मीटर दूर, तीन झरने वाले कुओं में से एक से नमक का पानी लाने के लिए एक घड़ा लेकर निकलते हैं।
पिछले पचास वर्षों से यही उनकी नियमित दिनचर्या रही है। वह अपने साधारण से घर में बने एक छप्पर, जिसे थमशुंग कहा जाता है, में कई छेद वाले आयताकार लकड़ी ईंधन वाले चूल्हे पर नमक की टिकिया बनाने के लिए पानी लाते हैं।
वर्षों से खनिज के जमा हो जाने के कारण पीले हुए ‘थमकोंग’ विस्मित करते हैं और भारी सम्मान का कारण बनते हैं।
बिनॉय कहते हैं – “वे एक रहस्य हैं। तीनों करीब 50 फुट गहरे हैं। इनमें से एक 300 साल पुराना है। वे हमेशा भरे रहते हैं, यहां तक कि सबसे शुष्क महीनों में भी।”
मुतुन मैमू के अनुसार, पूरे मणिपुर में पहले भी कई कुएं मौजूद थे।
मैमू ने कहा – “निंगेल के तीन को छोड़कर, बाकी सभी को ढक दिया गया है या बर्बाद हो गया है, क्योंकि कोई भी उनका उपयोग नहीं करता। इस गिरावट के लिए पैक किए नमक को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।”
यहां तक कि निंगेल के कुओं, जिनमें पुराना एक लकड़ी के फव्वारे वाला और बाकी दो कंक्रीट से बने हैं, को मरम्मत की जरूरत है।
बिनॉय कहते हैं – “उन्हें भविष्य के लिए संरक्षित किया जाना चाहिए। अफसोस की बात है कि इसकी किसी को परवाह नहीं है।”
थम्पक नमक की एक गोलाकार डिस्क है, जो दक्षिण भारतीय चावल के अप्पम की तरह दिखती है या, इसे थोड़ा और जटिल बनाने के लिए, तरल नाइट्रोजन में डूबे एक ब्लीच किया नींबू का टुकड़ा।
साधारण ग्रामीण लोग इसे पूर्णिमा के सफ़ेद चाँद की संज्ञा देते हैं।
74-वर्षीय कुंजरानी देवी के डीएनए में नमक है। उन्होंने पीढ़ियों से चली आ रही जटिल प्रक्रिया के बारे में बताया। नमकीन पानी को कड़ाही में लकड़ी की आग पर तब तक उबाला जाता है, जब तक कि पानी वाष्प बन कर न उड़ जाए और नमक अपने ठोस रूप में स्थिर न हो जाए।
वह कहती हैं – “सूखी लौकी के चम्मच से पानी को एक खुले बर्तन से दूसरी में स्थानांतरित किया जाता है। फिर लोहे के तवे को केले के पत्ते से ढककर, उस पर इसे रख दिया जाता है। नमक के केक कुछ ही घंटों में तैयार हो जाते हैं।” पत्ती टेफ्लॉन अवरोधक की तरह कार्य करती है; जबकि तवा गोलाकार आकार देता है।
आज जिस तरह से चीजें हैं, उसको लेकर अनुभवी नमक बनाने वाली नाराज हैं।
यह प्रक्रिया गहन श्रम और ईंधन की खपत वाली है।
हमें गर्मी, उमस और धुएं में 12-14 घंटे की मेहनत का सही दाम नहीं मिलता। यही कारण है कि युवाओं की इस व्यापार में रुचि नहीं है। हमारे निधन के बाद यह विरासत खामोश मौत मर जायेगी।
कुंजरानी कहती हैं – “हम जलाऊ लकड़ी पर कम से कम 1,000 रुपये और पानी भरने वाले को भुगतान के लिए हर दिन 100 रुपये खर्च करते हैं। मेरी ढलती उम्र मुझे कुओं से पानी लाने की इजाजत नहीं देती। इससे लाभ बहुत कम या कुछ भी नहीं है।”
प्रत्येक नमक निर्माता रोज लगभग 200 नमक केक बनाता है, प्रत्येक का वजन करीब 100 ग्राम होता है।
40-वर्षीय सोइबम मनाओबी ने कहा – “थम्पक की अभी भी मांग है।”
लेकिन उनके गांव का दूरदराज होना, खराब संपर्क सुविधा, खराब मार्केटिंग, सस्ते में खरीदकर खुदरा विक्रेताओं को ऊंची कीमतों पर बेचने वाले चालबाज बिचौलिए और बाजार के सामान्य नमक की उपलब्धता ने निंगेल के उद्योग को चोट पहुँचाई है।
बेहद निराश स्वर में सोइबम कहती हैं – “हमें गर्मी, उमस और धुएं के बीच 12-14 घंटों की कड़ी मेहनत का सही दाम नहीं मिलता है, जो लगातार हमारे स्वास्थ्य को चुनौती देती है। हम अपना नमक-केक 20 रुपये के हिसाब से बेचते हैं। यही कारण है कि युवाओं की इस व्यापार में रुचि नहीं है। हमारे निधन के बाद यह विरासत एक खामोश मौत मर जाएगी।”
निंगेल अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच तनावपूर्ण संघर्ष में फंसा हुआ प्रतीत होता है।
लेकिन 19-वर्षीय कॉलेज छात्र नरेश मैतेई ने अपनी उम्र के लगभग सभी लोगों की ओर से आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि कोई भी ऐसे कठिन व्यापार में क्यों फंसेगा, जिसमें आमदनी बहुत कम है और कम होते जंगलों की लकड़ी जलाकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है।
उन्होंने कहा – ”मैं यह काम करने की बजाय, एक अच्छी नौकरी चुनना पसंद करूंगा।”
लेकिन कुछ युवा अब भी नमक की ओर आकर्षित हो सकते हैं, क्योंकि इतिहास का भार व्यक्तियों की पसंद और कार्यों को आकार देने में अपनी भूमिका निभाना जारी रख सकता है।
शीर्ष की मुख्य फोटो में केले के पत्तों पर चावल के केक को चपटा करते दिखाया गया है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)
गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित एक पत्रकार हैं।
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और मूर्खतापूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने उत्तराखंड में पारंपरिक किसानों को मुश्किल में डाल दिया है, वे नई फसलें और आजीविका अपना रहे हैं।
एक अविकसित मणिपुरी गांव, नोंगपोक संजेनबम के निवासी आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए एक साथ आए हैं और इस प्रक्रिया में लाभों का आनंद ले रहे हैं।