मधुमक्खी पालन से छत्तीसगढ़ की जनजातियों ने चखा सफलता का स्वाद
वन उपज, वर्षा आधारित कृषि और जंगल के शहद पर निर्भर, दंतेवाड़ा के खनन क्षेत्र में हाशिये पर जीवन जीने वाली स्थानीय जनजातियों ने आधुनिक मधुमक्खी पालन को सफलतापूर्वक अपना लिया है।
वन उपज, वर्षा आधारित कृषि और जंगल के शहद पर निर्भर, दंतेवाड़ा के खनन क्षेत्र में हाशिये पर जीवन जीने वाली स्थानीय जनजातियों ने आधुनिक मधुमक्खी पालन को सफलतापूर्वक अपना लिया है।
बड़ेकामिली की आदिवासी बस्ती, छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा से 30 किमी दूर है। यह 430 से ज्यादा घरों वाला एक गाँव है, जो एक जंगल के साथ मौजूद है, जिसमें बहुत से साल, महुआ, करंज, कुल्लू, बरगद और नीम के पेड़ हैं। ग्रामीण पेड़ों को न सिर्फ आजीविका प्रदान करने वाला, बल्कि आपदाओं से बचाने वाला भी मानते हैं।
लौह-अयस्क से समृद्ध बैलाडीला पर्वत श्रृंखला की तलहटी में स्थित, बडेकामिली हालांकि एक आदर्श गांव के रूप में जाना जाता है, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है। गांव से होकर बहने वाली ‘धनखनी’ नदी, लौह-अयस्क खनन के कारण बेहद प्रदूषित है और किसी भी उद्देश्य के लिए, यहां तक कि फसल उगाने के लिए भी उपयुक्त नहीं है।
यही हालात आठ अन्य गांवों में भी हैं, जहां भूजल में लोहे की मात्रा ज्यादा पाई गई। चावल और कभी-कभी सब्जियाँ उगाने के लिए ग्रामीण उत्सुकता से मानसून का इंतजार करते हैं। आदिवासी महिलाएँ कृषि या गैर-टिम्बर वन उपज से प्राप्त अपनी कम आय की पूर्ति के लिए मधुमक्खियाँ पालती हैं।
प्रचुरता के बावजूद गरीबी
हरे-भरे दंडकारण्य जंगल और शांत जलधाराएँ, जनजातियों के जीवन के हालात को झुठलाते हैं। लंबे समय से चली आ रही माओवादी हिंसा, सरकारी दमन, सरकार और कॉर्पोरेट संस्थाओं द्वारा संसाधनों की खुदाई, पर्यावरण क्षरण और आदिवासियों के निरंतर शोषण ने गोंड, हल्बा, मुरिया, राउत, धाकड़ और तिलंगा जनजातियों को किनारे पर धकेल दिया है।
कुल 1,710 हेक्टेयर में फैले जंगल के प्रचुर संसाधन, इसे आजीविका का एक प्रमुख स्रोत बनाते हैं। अपने जीवनयापन के खर्चों की पूर्ति के लिए, जनजातियाँ साल के बीज, चिरौंजी, तेंदू पत्ता, महुआ के फूल एवं बीज, इमली, आम की गुठली, बाँस, गोंद, लाख और कन्द जैसे विभिन्न प्रकार की वन उपज एकत्र करती हैं।
सरकार ने 2015-2016 में खनन कंपनियों से लगभग 578.28 करोड़ रुपये और रेत खदानों से 14 लाख रुपये की रॉयल्टी अर्जित की। फिर भी दंतेवाड़ा देश के सबसे गरीब जिलों में से एक बना हुआ है।
आजीविका बढ़ाने के लिए मधुमक्खी पालन
दंतेवाड़ा जिले की अर्थव्यवस्था की प्रकृति कृषि प्रधान है। इस साल नवंबर में, 35-वर्षीय विधवा, मंगला तामो ने साढ़े चार महीने में पकने वाली देशी चावल की किस्म ‘दुबराज’ की कटाई की, क्योंकि सूखी खनिज-समृद्ध काली मिट्टी पर जून के अंत में मानसून का आगमन हुआ।
अपने मिट्टी की दीवार वाले, टाइल-छत वाले घर के सामने खड़ी, दो बच्चों की माँ का कहना था कि वह एक और तरह की फसल का इंतजार कर रही हैं, जो मार्च के मध्य में मिलेगी – शहद। एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) द्वारा जनजातियों की आजीविका बढ़ाने के प्रयास के अंतर्गत उपहार में दिए गए पांच मधुमक्खी के छत्तों ने तामो के जीवन को मधुर बना दिया है, जिससे उन्हें अपने परिवार के लिए अतिरिक्त आय उत्पन्न करने में मदद मिली है।
हल्बा जनजाति की तामो ने VillageSquare.in को बताया – “मधुमक्खी पालन हमारे लिए वरदान बनकर आया है। हम अपना शहद संस्था को बेचते हैं और वे हमें तुरंत भुगतान कर देते हैं। इसके अलावा, हमने दुकान से बोतलबंद शहद खरीदना बंद कर दिया है, जो हम सर्दी और खांसी के इलाज के लिए खरीदते थे।”
परम्परा से बदलाव
जंगल के करीब रहने वाली जनजातियाँ परम्परागत रूप से शहद इकट्ठा करती रही हैं, लेकिन शायद ही कभी मधुमक्खी पालन करती हैं। वर्ष 2003 से दंतेवाड़ा जनजातियों के बीच उनकी आजीविका बढ़ाने की गतिविधियों में शामिल एक गैर-सरकारी संस्था, ‘प्रगति प्रयास सामाजिक सेवा संस्था (PPSSS)’, जिसे ग्रामीण संस्था कह रहे थे, के राम नरेंद्र ने VillageSquare.in को बताया – “जनजातियाँ शहद इकट्ठा करती रही हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में वे छत्तों को नष्ट कर देते हैं।”
PPSSS ने बेंगलुरु स्थित हनीडे मधुमखी फार्म के अपूर्वा बी वी को आदिवासियों को मधुमक्खी पालन में प्रशिक्षण देने के लिए राजी किया। नरेंद्र कहते हैं – “जब से हमने महिला स्वयं सहायता समूहों के बीच मधुमक्खी पालन की शुरुआत की है, तब से अपूर्वा नियमित रूप से यहां आते हैं, जिन्होंने पुरुषों की तुलना में अधिक उत्साह से मधुमक्खी पालन को अपनाया।”
अक्टूबर 2017 में, अपूर्वा ‘Apis cerana indica’ कॉलोनी की 50 पेटियां लेकर गाड़ी चलाकर बेंगलुरु से दंतेवाड़ा पहुँचे। अपूर्वा कहते हैं – “हमने शाम के समय गाड़ी चलाकर, 1,290 किमी की दूरी तय की, क्योंकि मधुमक्खी कालोनियों को केवल रात के समय ही ले जाया जा सकता है।” कलेक्टर सौरभ कुमार के नेतृत्व में दंतेवाड़ा जिले के प्रशासन मधुमक्खी पालन परियोजना ने सहयोग किया है। दंतेवाड़ा स्थित ‘लाइवलीहुड कॉलेज’ इस परियोजना को संचालित और वित्तपोषित करता है।
मीठी क्रांति
मंगला तामो की तरह, दंतेवाड़ा के लगभग 25 गांवों की लगभग 80 आदिवासी महिलाएँ हैं, जिनमें ज्यादातर गोंड और हल्बा जनजाति से हैं, जिन्होंने मीठी क्रांति में शामिल होकर मधुमक्खी पालन शुरू कर दिया है। उनकी सफलता से प्रोत्साहित होकर, जैसे-जैसे बात फैल रही है, अधिकाधिक महिलाएँ मधुमक्खी पालन का कार्य कर रही हैं।
शुरू में, ताड़ी इकट्ठा करने वालों ने इस पहल का विरोध किया, क्योंकि मधुमक्खियाँ ताड़ी निकालने के लिए लटकाए गए बर्तनों में इकठ्ठा रस को खा जाती थी। जब उन्होंने डिब्बों की कालोनियों की मधुमक्खियों की संख्या बढ़ती देखी और परागण के महत्व को महसूस किया, तो उन्होंने स्वेच्छा से खुद भी मधुमक्खी पालन शुरू कर दिया।
क्योंकि जनजातीय समुदायों को एक टिकाऊ मॉडल की जरूरत थी, मधुमक्खियों की मूल प्रजाति, Apis cerana indica को चुना गया। जंगल से एकत्र किया गया शहद Apis dorsata द्वारा बनाया जाता है। अपूर्वा ने VillageSquare.in को बताया – “हमने विभिन्न व्यावहारिक कारणों से इटालियन प्रजाति, Apis mellifera पर विचार नहीं किया। इसके अलावा, यदि मधुमक्खी कॉलोनी बॉक्स को छोड़ देती है, तो ‘छत्ता बनाने’ का कौशल लोगों को प्राकृतिक कॉलोनी को बक्से में स्थानांतरित करने में सक्षम बना सकता है।”
लाभकारी मॉडल
वर्ष 2017 में, PPSSS ने पाँच टन शहद एकत्र किया और उत्पाद को ‘बस्तर हनी’ के रूप में ब्रांड भी किया है, जिसके प्राप्तकर्ताओं में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री जैसे गणमान्य व्यक्ति शामिल हैं, जिन्हें दंतेवाड़ा की यात्रा के दौरान बोतलें उपहार में दी गई थी।
बडेकामिली गांव की मुड्डे तामो (42), जिनके पास 20 बक्से हैं और 40 किलोग्राम शहद पैदा किया है, ने कहा कि उन्हें PPSSS को बेचे गए शहद पर 300 रुपये प्रति किलोग्राम मिलते हैं। मुड्डे तामो ने VillageSquare.in को बताया – “हमारे पूर्वजों ने कभी भी मधुमक्खी पालन के बारे में नहीं सोचा था और वे जंगल से शहद इकट्ठा करते थे। हम भाग्यशाली हैं कि हम मधुमक्खी पालन में आ सके; इससे धान और सब्जियों की पैदावार बढ़ी है।”
PPSSS और HoneyDay ने अब तक जनजातियों में 450 से ज्यादा बक्से वितरित किए हैं। और अधिक परिवारों तक पहुंचने के प्रयास में, दंतेवाड़ा से 8 कि.मी. दूर ‘कवलनार’ गांव के चार आदिवासी युवा बेंगलुरु के HoneyDay में प्रशिक्षण ले रहे हैं। समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर और चितालंका गांव के आदिवासी नरेंद्र कहते हैं – “जब वे अपने दो महीने के प्रशिक्षण से लौटेंगे, तो हम और अधिक परिवारों तक पहुंच सकेंगे।”
हिरेन कुमार बोस ठाणे, महाराष्ट्र स्थित एक पत्रकार हैं। वह सप्ताहांत में एक किसान के रूप में भी काम करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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