जम्मू-कश्मीर: आधुनिक फैशन से पिछड़ती गुज्जर महिलाओं की कढ़ाई वाली टोपी

बडगाम, जम्मू और कश्मीर

रंग-बिरंगी कढ़ाई वाली टोपी कश्मीर की गुज्जर महिलाओं की सांस्कृतिक पहचान है। युवा पीढ़ी टोपी पहनने के लिए उत्सुक नहीं है, इसलिए महिलाओं को अपनी परम्परा खोने का डर है।

जहाँ तक नज़र जाती है, ऊँचे पेड़ों से घिरे घास के मैदान वाला, जम्मू और कश्मीर के पुलवामा जिले का निम्बलन एक आदर्श गाँव है।

और सुहावने मौसम में यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि 65-वर्षीय ज़ुलेखा, दोपहर के समय अपने ‘कोटा’ (मिट्टी और लकड़ी का घर) के सामने घास पर बैठ कर एक टोपी सिलने में व्यस्त रहती हैं।

क्योंकि ऐसा रोज नहीं होता कि उसे टोपी बनाने का ऑर्डर मिले, वह भी एक ऐसे व्यक्ति से, जो उसके गाँव से लगभग 150 कि.मी. दूर रहता है।

हालाँकि ज़ुलेखा अब उतनी कमाई नहीं कर पाती जितनी पहले कमाती थी, लेकिन वह टोपी सिलने के किसी भी ऑर्डर से खुश हैं। यह वह काम है, जो उन्हें आशा देता है कि टोपी बनाने की परम्परा कुछ समय तक जारी रहेगी।

गुज्जर महिलाओं की टोपी – एक सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान

कश्मीरी से लेकर गुज्जर, बकरवाल, पहाड़ी और डोगरा तक, जम्मू-कश्मीर में रहने वाली सभी प्रमुख स्थानीय जातियों की अपनी अलग पोशाक है।

टोपी बनाने वाली जुलेखा के लिए, टोपी गुज्जर महिलाओं की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान है (छायाकार – रईस रमज़ान)

गुज्जर और बकरवाल समुदाय की महिलाएँ, जो इस क्षेत्र का तीसरा सबसे बड़ा जातीय समूह है, अलग दिखाई देती हैं। वे पारम्परिक टोपी पहनती हैं, जो सामान्य टोपी से बिल्कुल अलग होती है।

कपड़े के एक टुकड़े से सिली टोपी पर रंगीन धागों से कढ़ाई की जाती है, ठीक उसी तरह, जैसे जुलेखा साधारण डिजाइनों के साथ सजा रही थी।

एक मुस्लिम, ज़ुलैख़ा कहती हैं – “चाहे 10 साल से कम उम्र की लड़कियां हों या 80 साल से ज़्यादा की बुज़ुर्ग महिलाएँ हों, हमारी परम्परा और संस्कृति के प्रतीक के तौर पर महिलाएँ टोपी पहनती रही हैं। यह हमारे बालों को भी ढकती है, जो हमारे धर्म में भी महत्वपूर्ण है।”

लगभग तीन दशक पहले, गुज्जरों में टोपी बनाना आम बात थी, खासकर अमीर परिवारों की महिलाओं के लिए। लेकिन अब समय बदल रहा है।

बदलते रुझान, लुप्त होती परम्पराएं 

ज़ुलैखा, जो 18 साल की उम्र से ये टोपी बना रही हैं, ने अपनी परम्पराओं और पारम्परिक पोशाकों को गायब होते देखा है, खासकर पिछले दशक में।

अपनी उंगलियां चतुराई से टोपी पर कढ़ाई करते हुए, वह कहती हैं – “एक समय था, जब हर घर में महिलाएं ये टोपी बनाने में व्यस्त थी। अब धीरे-धीरे यह परम्परा लुप्त हो रही है।”

उन्होंने इस बदलाव के लिए वैश्विक फैशन रुझानों को जिम्मेदार ठहराया, जो युवाओं को आकर्षित कर रहे हैं।

सुरैया तब अच्छी कमाई करती थी, जब युवा और वृद्ध, सभी गुज्जर महिलाएं टोपी पहनती थी (छायाकार – रईस रमज़ान)

अपने शब्दों के अनुरूप, उनके गाँव की बहुत सी युवा लड़कियाँ टोपी से अपने बाल नहीं ढकती थी, फिर भी यह बताने में झिझकती थीं कि ऐसा क्यों है।

अपने टीवी कार्यक्रमों में टोपी पहनना जारी रखने वाली एक राष्ट्रीय टेलीविज़न एंकर, शाज़िया चौधरी के अनुसार, वे समकालीन फैशन से प्रभावित हैं।

युवा लड़कियों का मानना है कि पुराने जमाने की टोपी पहनने से समाज उनके साथ भेदभाव करेगा।

उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “युवा लड़कियों का मानना है कि पुराने जमाने की टोपी पहनने से समाज उनके साथ भेदभाव करेगा।”

घटती आय

फैशन में बदलाव निम्बलन की महिलाओं की घरेलू आय को प्रभावित कर रहा है।

आह भरते हुए ज़ुलैख़ा कहती हैं – “काश मैं ये टोपी बनाकर उतना ही पैसा कमा पाती, जितना मैं अपनी बीस साल की उम्र में कमाती थी।”

उनकी पड़ोसी सुरैया और सलीमा, जो दशकों से टोपी बना रही हैं, इस बात से सहमत हैं।

पहले महिलाएँ लगातार ये टोपी बनाती रहती थी, इसलिए स्टॉक बहुत ज़्यादा होता था और ग्राहक अपनी पसंद के रंग चुन सकती थी। अब जब ऑर्डर बहुत कम मिलते हैं, तो महिलाएँ ऑर्डर मिलने के बाद ही टोपी बनाती हैं। इसलिए वे अपने ग्राहकों द्वारा बताए गए कपड़े और रंग की टोपी बनाती हैं।

एक दशक पहले, एक गुज्जर महिला रु. 5,000 से 7,000 महीना कमा सकती थी, जो इन गांवों के समुदाय के लिए काफी थी। लेकिन अब वे ज्यादा से ज्यादा रु. 3,000 ही कमाती हैं, जो हमेशा नहीं होता।

परम्परा को जीवित रखने की दिशा में

टोपी बनाने का काम जारी रखने वाली गुज्जर महिलाओं का कहना था कि परम्परा को जारी रखने के लिए, उनके समुदाय की महिलाओं को फिर से टोपी पहननी चाहिए।

ज़ुलैखा चाहती हैं कि सभी गुज्जर महिलाएँ टोपी पहनने की परम्परा को जारी रखें (छायाकार – रईस रमज़ान)

महिलाओं ने सुझाव दिया कि प्रशासन को स्थानीय और देश भर में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए, ताकि लोग उनकी समृद्ध परम्परा की सराहना करें।

एक गुज्जर सामाजिक कार्यकर्ता, शौकत अहमद ने VillageSquare.in को बताया – “हालांकि सरकारी अधिकारी और गैर सरकारी संगठन दावा करते हैं कि वे पारम्परिक संस्कृति को बचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हमारे समुदाय के लिए कुछ भी नहीं किया गया है।”

गुज्जर और बकरवाल युवा कल्याण, पुलवामा के अध्यक्ष दानिश अली टेडवा ने कहा कि समुदाय के साथ-साथ प्रशासन को पारम्परिक टोपी को पुनर्जीवित करने के लिए काम करना चाहिए।

टेडवा कहते हैं – “सरकार को सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए, ताकि युवा पीढ़ी में हमारी पारम्परिक पोशाक के प्रति रुचि विकसित हो।”

संभवतः फैशन डिज़ाइनर इसे गुज्जरों और बखेरवालों की महिलाओं की पारम्परिक टोपी को पुनर्जीवित करने के लिए, इसे ‘हाउते कॉउचर’ (महिलाओं की महँगी पोशाकों का व्यवसाय) में एक एक्सेसरी बना सकते हैं।

शीर्ष की मुख्य छवि में टोपी पहने गुज्जर महिलाओं को टोपी बनाते हुए दिखाया गया है।

रईस रमज़ान बडगाम स्थित एक पत्रकार हैं।