पितृसत्ता, स्थिरता और लज्जा
ग्रामीण विकास के मौजूदा मॉडल की रूपरेखाओं में, जेंडर-लैंस का अभाव है, जो महिलाओं को उनकी सीमांकित भूमिका में छोड़ देता है, और इस दिशा में प्रगति या सशक्तिकरण कहीं दिखाई नहीं पड़ता
मैं एक प्रतिष्ठित एनजीओ के क्षेत्र में यात्रा कर रहा था। बिहार के जिस गांव में मैं गया था, वहां हमारा मेजबान जैविक (ऑर्गेनिक) पौधों की सुरक्षा के लिए प्रयोग सामग्री के फायदों को लेकर बहुत उत्साहित था। वह मुझे अपने आंगन के हिस्से में ले गया और मुझे विभिन्न गमले दिखाए, जिनमें उनका माल लगा हुआ था। अपने बेहतर अनुमान के विपरीत, मैं एक बड़े गमले के नजदीक गया और उनसे उसका ढक्कन हटाने के लिए कहा। मैंने उसमें झांक कर देखा।
हे भगवान! मैं लगभग बेहोश हो गया। उसकी महक जोरदार थी। मुझे अपना संतुलन पूरी तरह से ठीक करने और बातचीत करने लायक होने में कई मिनट लगे। मुझे लगा कि वह वस्तु इतनी तीखी है कि मेरे जैसे 90 किलो के आदमी की जान ले सकती है और बेचारे कीट-पतंगों के बचने का कोई मौका नहीं था। हमने प्रक्रिया के बारे में कुछ और बात की। उन्होंने कॉपी-बुक अंदाज़ में मुझे बताया, कि कैसे पांच पेड़ों की पत्तियों को इकट्ठा करके मिलाया और पीसा गया, कैसे उसे सड़ने दिया गया, इत्यादि।
लैंगिक असमानता
घर की महिला अपने चेहरे को घूंघट से आधा ढके, कुछ फीट की दूरी पर खड़ी थी। मैंने मेजबान से पूछा कि यह काम किसने किया। उन्होंने एकदम से कहा “हम सब करते हैं”। मैंने सीधे महिला से पूछा कि ये काम किसने किया। उन्होंने कहा “मरद अपना काम करते हैं, हम अपना काम”। तो मैंने पूछा कि पुरुषों का काम क्या है|
ऐसा प्रतीत होता था कि पत्तों को इकट्ठा करने का काम नौजवान पुरुषों या लड़कों ने किया था, क्योंकि इसमें चढ़ाई वगैरह शामिल थी| मूत्र और गोबर संग्रह और इस तरह के काम मेजबान की बेटी गुड़िया या गुड़िया की मां द्वारा किए गए थे। और यह सड़ाने वगैरह के काम की देखरेख किसने की? महिला ने बताया कि उन्होंने बसंती (सालाना अनुबंध पर रखे मजदूर भोला की पत्नी, उनकी नौकरानी) से वह काम करने के लिए कहा।
यह एक बेहतरीन व्यवस्था लग रही थी। पुरुष टिकाऊ खेती के तरीकों को अपनाकर पृथ्वी को बचाने में योगदान की डींग हाँक सकता था। महिला ने अपने हाथों को गाय के गोबर और मूत्र से भिगोने का गंदा काम किया और असल में भद्दा काम उनके घर में काम करने वाली दलित महिला ने किया।
हम गाँव से गुज़रे, तो एक छोर पर हमने भोला को अपनी झोपड़ी में जाते देखा। हमने उससे बात की। मैंने पूछा कि क्या उनकी पत्नी आसपास है और क्या मैं उनसे बात कर सकता हूं। ऐसा लग रहा था कि वह जलाऊ लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए जा चुकी थी और भोला ने दूर एक महिला की ओर इशारा किया, जो अपने सिर पर झाड़ियों का गट्ठा ला रही थी। भोला ने इजाजत ली, अपनी मोपेड चालू की और बाबू साहब का दिया हुआ कोई काम करने के लिए चला गया।
सार्वजानिक स्नान
बाद में मैंने अपनी दो होनहार युवा महिला सहयोगियों को, अपनी जानकारी इकठ्ठा करने के लिए एनजीओ से मदद लेने की सलाह दी। वे ढूंढ रही थी कि महिलाएँ कहाँ और कैसे रोज़ स्नान करती हैं। लौटने पर उन्होंने मुझे बताया कि वे उसी गाँव और कुछ पास के गांवों में गई थी। नहाने को लेकर स्थिति काफी बुरी थी। केवल बाबूसाहेब और उनके भाई के अपने घर के परिसर के भीतर स्नानघर थे और उनकी महिलाएँ वहां स्नान करती थी। बाकी सभी महिलाओं को ‘जुगाड़’ करना पड़ता था।
यह काफी बड़ा गाँव था। राजपूत, भूमिहार, यादव और निश्चित रूप से ‘महादलित’ गांव में रहते हैं। वहां दो-एक तालाब थे। उनमें से एक बारहमासी था। उसका इस्तेमाल पुरुषों, महिलाओं और भैंसों के नहाने के लिए होता था। पुरुष और महिलाएँ अलग-अलग समय पर स्नान करते थे। महिलाओं को थोड़े वक्त में निपटाना होता था, जब एक छोर पर नीला आकाश और चमकता सूरज, तो दूसरे छोर पर भैंसें लौट रही होती थी।
मेरी सहयोगियों ने मुझे बताया कि महिलाएँ और लड़कियाँ तालाब में ही अपने मासिक धर्म के गंदे कपड़े बदलती और धोती हैं और कई बार उसे तालाब के तल में ही छोड़ देती हैं। जब मेरी सहयोगियों ने इसके बारे में पूछा, तो एक बुजुर्ग महिला ने उन्हें बताया कि लड़कियों को अपनी लाज रखनी होती है और अपने ऊपर किसी प्रकार की भद्दी टिप्पणी की अनुमति नहीं दे सकती, जो कि उनके कपड़े दिखाई देने पर होने की सम्भावना थी!
महिलाएं और परिश्रम
तो ऐसे हैं हमारे मनोहर गाँव। पुरुषों को पता है कि उनका काम क्या है। पत्नियां और बेटियां जानती हैं कि उनका काम क्या है। महिलाएं चुपचाप गोबर, गोमूत्र एकत्र करती हैं और जैविक खेती में अपने पति की मदद करती हैं। वे बच्चों को खाना खिलाती हैं और उन्हें साफ रखती हैं। वे वह सब संभालती हैं, जो ख़राब और बदबूदार है। वे किसी भी स्रोत, चाहे वह कितनी भी दूर है, से पानी लेकर आती हैं, वे टहनियाँ काटती हैं और चुल्हा चुल्हा जलाने के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा करती हैं, वे अपनी गाय को खिलाने के लिए घास काटती हैं। “एक पुरुष ये काम कैसे कर सकता है?”
इस तरह की टिप्पणियों से चिढ़कर, किसी ने एक बार मुझसे इसका हल पूछा। मैं कुछ देर चुप रहा और सोचने लगा। क्या इस तरह की स्पष्ट कमियों का कोई समाधान है? या हमें बस यह कह सकते हैं कि गाँव के परिवार स्वायत्त होते हैं और उन्हें अपने जीवन का तरीका चुनने की पूरी आज़ादी होती है? यह एक अच्छा सवाल है। आखिर किसी ने मुझे यह अधिकार नहीं दिया है कि मैं जाऊं और ग्रामीण परिवारों को सलाह दूँ कि उन्हें अपने सदस्यों के बीच काम का बंटवारा कैसे करना चाहिए।
विकास की सोच
लेकिन क्या हम विकास सम्बन्धी योजना नहीं बना रहे हैं और उनके जीवन में बेहतरी के लिए विभिन्न चीजों में निवेश को प्रोत्साहित नहीं कर रहे हैं? चाहे किन्हीं भी उद्देश्यों के साथ किया गया हो, आखिरकार उज्जवला योजना ने कुछ घरों की महिलाओं के लिए जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने का बोझ कम किया है| क्या इस लेंस को विभिन्न स्कीमों और योजनाओं के लिए अपनाया जाना चाहिए?
सरकारों, दानदाताओं और सीएसआर फंडों का बहुत सारा पैसा, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों के निर्माण, टेलीकॉम टावरों के निर्माण और जो खरीद सकते हैं उनके स्मार्ट फोन पर उपयोग किए जाने वाले ऐप बनाने के लिए खर्च किया जाता रहेगा।
यही वह तरीका है और यही विकास में योगदान देता प्रतीत होता है, जो सत्ता में बैठे या वे जिनके पास पैसा है, जिस प्रकार इसे देखते हैं। लेकिन क्या कुछ पैसा गाँवों में महिलाओं के लिए बाथरूम बनाने के लिए, उन्हें पानी लाने या उनकी पीठ पर भार कम करने के लिए ठेला खरीदने में भी जा सकता है? या महिलाओं की सैनिटरी पैड तक पहुँच में सक्षम होने के लिए, ताकि वे गाँव के तालाब में कपड़े न डालें?
क्या इंजीनियरिंग कॉलेजों में कृषि के लिए जैविक सामग्रियों के उत्पादन में शामिल कार्यों के प्रबंधन के लिए, प्रक्रियाएँ विकसित करने की क्षमता नहीं है? वे निश्चित रूप से इस तरह के अनुप्रयोग के लिए मौजूदा पिसाई, सम्मिश्रण, सड़ाने की (फेरमेंटशन) तकनीकों के उपयोग को बढ़ावा देने की कोशिश के साथ शुरू कर सकते हैं। मुझे वास्तव में कोई मौलिक कठिनाई दिखाई नहीं देती। यानी, यदि दलित महिलाओं की लज्जा और कठोर मेहनत, दानदाताओं और तकनीक विशेषज्ञों के लिए किसी भी प्रकार से महत्वपूर्ण है, तो ये काम करने में कोई रूकावट नहीं है। कृपया मुझसे यह न पूछें, कि क्या वास्तव में ये काम किए जाएंगे।
संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए, तमिलनाडु के शिक्षित युवाओं ने अपनी पैतृक भूमि का आधुनिकीकरण करके और इज़राइली कृषि तकनीक का उपयोग करके कृषि उत्पादन को कई गुना बढ़ा दिया है।
पोषण सखी या पोषण मित्र के रूप में प्रशिक्षित महिलाएं ग्रामीण महिलाओं, विशेषकर गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को पौष्टिक भोजन खाने और एनीमिया और कम वजन वाले प्रसव पर काबू पाने के लिए सलाह और मदद करती हैं।
ओडिशा में, जहां बड़ी संख्या में ग्रामीण घरों में नहाने के लिए बंद जगह की कमी है, बाथरूम के निर्माण और पाइप से पानी की आपूर्ति से महिलाओं को खुले में नहाने से बचने में मदद मिलती है।