लॉकडाउन के दौरान, आदिवासी समुदाय ने किया सामूहिक कुओं को पुनर्जीवित

and उदयपुर, राजस्थान

जब पीने के पानी की बेहतर उपलब्धता के लिए बार-बार किए गए अनुरोध विफल हो गए, तो एक महिला समूह की सदस्यों ने, लॉकडाउन के कारण प्रवास से लौटे युवकों को, सामुदायिक कुओं के पुनर्निर्माण के लिए राजी कर लिया

जैसे ही राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लागू हुआ, भूरा राम और उनके चचेरे भाई, अहमदाबाद, सूरत या बॉम्बे से, कपड़ा मिल में सहायक, राजमिस्त्री, बंटाई पर खेती और पेंटर के अपने रोजगार छोड़कर अपने गांव वापिस आ गए।

कनेला गाँव के 85 परिवारों में से लगभग 80% के कम से कम एक पुरुष सदस्य, काम के लिए शहर में जाता है। भूरा राम कहते हैं – “हमारे गांवों के अधिकांश पुरुष सदस्य शहरों में काम करते हैं। यह लॉकडाउन की वजह से ही हुआ, कि हम सभी एक ही समय पर गाँव में हैं।”

लॉकडाउन को एक महीना होते होते, भूरा राम और उनके गांव के दूसरे लोगों ने, सरकार से कुछ भी मिलने की उम्मीद छोड़ दी। भूरा राम ने बताया – “हम कब तक इंतजार कर सकते हैं? बाहर कोई काम नहीं है, इसलिए हमने अपने गांव की संपत्ति पर काम करने के बारे में सोचा।”

20 परिवारों के साथ मिलकर, उन्होंने उदयपुर जिले की ब्राह्मणों का कलवाना पंचायत के कनेला गाँव में, कुएँ का पुनर्निर्माण किया। भूरा राम बताते हैं – “ऐसा नहीं है कि हमने पहले इस कुएं के निर्माण के बारे में नहीं सोचा था, लेकिन हमेशा संसाधन का अभाव रहता था।”

उनके प्रयासों से न केवल पीने के पानी की उपलब्धता सुनिश्चित हुई, बल्कि कई गांवों के लोगों को प्रेरित किया, जिसके परिणामस्वरूप समुदायों की सामूहिक सम्पत्तियाँ बहाली हुई।

घटता जलस्तर

एक आम मुद्दा, जिसका गोगुन्दा प्रशासनिक ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले कनेला के परिवार सामना करते हैं, वह गर्मियों के महीनों में पानी की किल्लत का मुद्दा है। कम वर्षा और जल संरक्षण ढांचों की कमी के कारण, लगभग सभी परिवार अपने खेत की सिंचाई में कठिनाई का सामना करते हैं। इसलिए वे केवल तीन महीने वर्षा-आधारित खेती करते हैं, यानि साल भर में सिर्फ एक फसल।

सुलखी मोड़ी टोले के निवासियों के लिए एकमात्र स्रोत था, रिसकर गड्ढे में जमा हुआ पानी (छायाकार – अनहद इमरान)

सायरा प्रशासनिक ब्लॉक के चीतरावास गांव की गरासिया आदिवासी महिला, पावनी बाई, पीने का पानी लाने के लिए, दिन में सात घंटे खर्च करती हैं। क्योंकि एकमात्र हैंड पंप, उसके घर से 2.5 किमी दूर है, इसलिए प्रत्येक बार उसे, पहाड़ी इलाके में चलकर पानी लाने में लगभग 40 मिनट लगते हैं। लॉकडाउन के कारण गाँव में पानी की जरूरत बढ़ जाने से, समय भी बढ़ गया है।

गोगुन्दा ब्लॉक की पाटिया पंचायत के सुलखी मोड़ी गांव में, जमीन पर एक छोटे से गड्ढे में रिसकर इकठ्ठा हुआ पानी, 28 परिवारों के लिए पीने के पानी का एकमात्र स्रोत है। ग्रामवासी उसी जल-स्रोत का उपयोग सफाई और कपड़े धोने के लिए करते हैं।

गोगुन्दा प्रशासनिक ब्लॉक के सभी आदिवासी गाँवों में भी यही स्थिति है। आदिवासी बहुल टोले, ऊंची जातियों के प्रभुत्व टोलों की तुलना में, जल स्रोतों से दूर हैं। यही कनेला और चीतरावास में भी देखा जा सकता है।

प्रशासनिक सहयोग का अभाव

पिछले तीन वर्षों से, गोगुन्दा और सायरा ब्लॉक की जेमली, ब्राह्मणों का कलवाना, चीतरावास, पाटिया, और मोरवाल पंचायतों के निवासी, अपने पंचायत सदस्यों से अनुरोध कर रहे हैं, कि वे जल संरक्षण और आपूर्ति की व्यवस्था करें, खासतौर पर गर्मी के महीनों के दौरान।

सात प्रशासनिक खंडों के आदिवासी महिलाओं के समूह, ‘उजाला संगठन’, स्थानीय प्रशासन को उनके काम के लिए जिम्मेदार ठहराती है। पिछले साल भी, तीन पंचायतों की 35 महिलाओं ने, अपनी पानी की समस्याओं के समाधान के लिए, स्थानीय प्रशासन को एक याचिका दी थी।

मिरकी बाई की अध्यक्षता में, सायरा ब्लॉक की 300 आदिवासी महिलाओं के समूह ने स्थानीय प्रशासन द्वारा कार्यवाही के कई प्रयास किये हैं। लेकिन उनके किसी भी प्रयास से प्रशासन ने उनके पानी के संकट का स्थायी समाधान खोजने की कोशिश नहीं की।

सामूहिक कार्यवाही

लॉकडाउन में क्योंकि ज्यादातर पुरुष प्रवासी, अपने गांवों में वापिस आ गए थे, इसलिए प्रशासन के द्वारा कार्रवाई का इंतजार करने की बजाय, ग्रामवासियों ने अपने कुओं के निर्माण और गहरा करने का फैसला किया। भूरा राम बताते हैं – “हमारे पास इस काम को करने के लिए उतने पैसे नहीं हैं। लेकिन हम शारीरिक श्रम कर सकते हैं।”

महिला समूह की नेता मिरकी बाई ने यह सुनिश्चित किया कि समुदाय अपने पानी के संकट को हल करने के लिए एक साथ काम करे (छायाकार – सलोनी मुंद्रा)

महिलाओं के समूह की नेता मिरकी बाई ने मजदूरों के समूह के सदस्यों, तुलसी राम और भूरा राम की मदद से, दूसरे पुरुषों को गांव के कुँए के पुनर्निर्माण में अपना योगदान देने के लिए राजी कर लिया। जब गांव वाले सहमत हो गए, तो उन्होंने पांच सदस्यीय निगरानी समिति बना ली।

निगरानी समिति ने कुएं पर बारी-बारी से काम करने के लिए, लगभग 25 युवाओं का एक समूह बनाने का फैसला किया, ताकि हर कोई काम में योगदान दे सके। इस क्षेत्र में काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था, आजीविका ब्यूरो ने निर्माण सामग्री के अलावा, विस्फोट-मशीन, चरखी, आदि के लिए लगभग 30,000 रुपये का खर्च वहन किया।

खर्च का कुछ भाग, जो कुल लगभग 28,000 रुपये था, वह परिवारों ने दिया। जिन परिवारों के युवा कुएं पर काम करने के लिए गए, उनके लिए, अजिविका ब्यूरो ने गेहूं, चावल, दाल, तेल आदि का अतिरिक्त राशन प्रदान किया, जो पंचायत द्वारा दिए जाने वाले 10 किलो गेहूं के अलावा था। उन्होंने कुछ दूसरा आवश्यक सामान, जैसे प्रसाधन और कीटाणुनाशक, भी प्रदान किए।

मिरकी बाई, जिनके परिवार ने कुँए के पुनर्निर्माण पर काम किया, ने बताया – “एक व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता, लेकिन जब हम एक साथ होते हैं, तो देखिए हम क्या हासिल करने में सक्षम हुए। यह वह है, जो सामूहिकता ने हमें सिखाया है – ताकत एकता में निहित है।”

अतिरिक्त प्रभाव

कनेला में, लोगों के प्रयासों से, कुओं को लगभग 15 फीट गहरा किया गया, जिससे पहले के 500 लीटर की जगह, अब रोजाना 5,000 लीटर पानी मिलता है। यह सामुदाय के नेताओं और महिलाओं समूह की सामूहिक ताकत थी, जिससे इस पहल को बेहद जरूरी गति मिल सकी।

कनेला गाँव में खुले कुएँ के पुनर्निर्माण के बाद, गोगुन्दा सहित चार प्रशासनिक ब्लॉकों के 33 गाँवों में, समुदाय के सदस्यों ने अपनी सामुदायिक सम्पत्तियों को दुरुस्त करना शुरू किया है।

पावनी बाई के गांव, चीतरावास में, 22 परिवारों ने कुएं को गहरा करने का काम किया, ताकि उन्हें पीने के पानी की बेहतर सुविधा मिले। समुदाय के सामूहिक प्रयासों और ‘आजीविका’ के सहयोग से, दो कुओं को गहरा किया गया। एक कुआँ पावनी बाई के घर के नजदीक है, जिससे उसका पानी लाने का समय बहुत कम हो गया है।

मिरकी बाई ने तुलसी राम और उनके गाँव के दूसरे सदस्यों के साथ मिलकर, सामुदायिक कुँए का पुनर्निर्माण किया (छायाकार – सलोनी मुंद्रा)

लगभग 650 परिवारों ने, अपने कुओं, खेत की जमीनों और सामुदायिक महत्व के दूसरे स्थानों का पुनर्निर्माण शुरू कर दिया है। लॉकडाउन की वजह से अपने गांवों में लौटकर आए युवा प्रवासियों और दिहाड़ी मजदूरों ने पेयजल और कृषि उद्देश्यों के लिए महत्वपूर्ण श्रोतों का निर्माण/मरम्मत करने का फैसला किया है। इससे इन दूरदराज की आदिवासी बस्तियों के परिवारों को दीर्घकालिक लाभ मिलेगा| 

सलोनी मुंद्रा और दृष्टि अग्रवाल ‘आजिविका ब्यूरो’ के ‘परिवार सशक्तिकरण कार्यक्रम’ के साथ काम करती हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।