जल के लिए, निर्माण की बजाय खुदाई कहीं बेहतर है

सूखाग्रस्त मराठवाड़ा से कुछ बेहतरीन उदाहरणों से सीख कर, सरकारी कार्यक्रमों के अंतर्गत, पानी की पर्याप्तता के लिए, महंगे ढांचों के निर्माण की बजाय, तालाब खोदने और नदी-नालों को गहरा करने में समझदारी है।

महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त मराठवाड़ा क्षेत्र से, कुछ छिटपुट, लेकिन उल्लेखनीय सबक उपलब्ध हैं। यह क्षेत्र पिछली गर्मियों में चर्चा में आया, जब लगातार तीन साल तक खराब बारिश के कारण, यहां पानी की भारी किल्लत हो गई। कई अखबारों द्वारा प्रकाशित, सांगली से लातूर तक की जल एक्सप्रेस की तस्वीरें अभी भी लोगों के जहन में ताज़ा होंगी। यह ट्रेन एक बार में 25 लाख लीटर पानी पहुंचाती थी।

बहुत से संगठन और निजी लोकहित संस्थाएं, सूखा प्रभावित लोगों की मदद के लिए आगे आए। राज्य सरकार ने क्षेत्र को सूखा-निरोधक बनाने की दिशा में, जलयुक्त शिवर नामक एक बड़े कार्यक्रम की घोषणा की। इस कार्यक्रम का उद्देश्य, खेत तालाब, जलधाराओं को चौड़ा और गहरा करना, आदि जैसे बड़ी संख्या में जल-संचयन ढांचे बनाना था|

जलयुक्त शिवर के साथ-साथ, कुछ अद्भुत कार्यों के बेहतरीन उदाहरण हैं, विशेष रूप से नागरिक समाज संगठनों के नेतृत्व में हुए कार्य। इन सभी प्रयासों का सबसे महत्वपूर्ण सबक यह रहा है, कि निर्माण की बजाय खुदाई करना एक बेहतर विचार है।

वर्ष 2013 में भी, जब इस क्षेत्र में एक बड़ा सूखा पड़ा था, मुंबई-स्थित ‘केयरिंग फ्रेंड्स’ नाम के एक समूह, जिसको ज्यादा लोग नहीं जानते थे, के सहयोग से नागरिक समाज संगठनों ने, महाराष्ट्र के जालना जिले में जीवरेखा नामक जगह पर एक तालाब के पुनर्निर्माण का बहुत बड़ा काम किया था। जहां उन्होंने सामुदायिक रूचि बढ़ाने के लिए, श्रम का योगदान दिया, वहीं उन्होंने एक बड़े तालाब से गाद निकालने के लिए मशीनों का उपयोग किया।

बिना धूमधाम, बेहतरीन काम

तालाब के मध्य के गहरे भाग से गाद को मशीनों के प्रयोग से निकाला गया। इस गाद को किसान उत्साहपूर्वक अपने खेतों तक ढो ले गए, क्योंकि उन्होंने इसे अच्छी उपजाऊ मिट्टी के रूप में देखा। एक स्थानीय किसान ने जबरदस्त रुचि ली और सामुदायिक नेतृत्व का एक ज्वलंत उदाहरण बन गया। इसका परिणाम यह हुआ, कि 2015 के सूखे के दौरान, यहां से सात गांवों को रोज 11 लाख लीटर पानी पहुँचाया जा सका, जो महिमामंडित कुख्यात जल-ट्रेन द्वारा लातूर को पहुँचने वाले पानी की मात्रा का आधा था| और किसी ने भी इस पहल के बारे में नहीं सुना, क्योंकि वहाँ पर कोई धूमधाम नहीं थी। क्या यह इसलिए है, क्योंकि कि हम उन चीजों को सुनना पसंद नहीं करते, जो अच्छी तरह से हो जाती हैं?

वर्ष 2015 के दौरान, मराठवाड़ा के सबसे बुरी तरह से सूखाग्रस्त जिलों में से एक, बीड में, 200 से अधिक गांवों में काम करने वाले संगठन, मानवलोक ने कुछ बहुत अच्छे काम किए। अंबेजोगाई के पास पटोदा में, उन्होंने होलाना नदी और उसकी सभी सहायक नदियों का कायाकल्प किया। यह दोहा मॉडल नामक एक सुंदर और सस्ती तकनीक का इस्तेमाल करके किया गया था। इस मॉडल से हमें पता चलता है, कि अतीत में कितने जल-संरक्षणवादी एक साफ सुथरी तरकीब से चूक गए।

निर्माण में रुचि

कुछ समय पहले तक, जल संरक्षण का मतलब होता था, चेक-डैम का निर्माण। बनाए जाने वाले चेक बांधों की संख्या और उनके बीच की दूरी धारा के ढलान और प्रवाह द्वारा निर्धारित की जाती है। लेकिन हर प्रयास और हर रुपये की दिशा निर्माण की ओर ही होती थी। यह सभी के लिए बहुत रुचिकर है: ठेकेदार, इंजीनियर और राजनीतिज्ञ। वे सभी यह दावा कर सकते हैं, कि उन्होंने उन चीजों के निर्माण के लिए कड़ी मेहनत की है, जो पानी जुटा कर रखेंगे, जबकि खर्चों के उसी विभाजन के साथ काफी बड़ी राशि खर्च की जाती है, जिस पर विनम्रतावश हम चर्चा नहीं करेंगे।

पटोदा में जो किया गया, वह उसका उल्टा है। उन्होंने खुदाई की। उन्होंने नदी के लगभग पूरे तले को खोद दिया, जो उसके मूल स्थान से कम से कम 5 किमी होगा। खुदाई व्यवस्थित थी। जैसे कि 100 मीटर लम्बाई के एक हिस्से को खोदा गया। फिर कुछ लंबाई, मान लीजिए 10 मीटर, तक अपने मूल स्तर पर छोड़ दिया गया। और फिर से एक हिस्से को खोदा गया, और इसी तरह आगे। इसकी सहायक नदियों में भी यही किया गया था।

किनारे तक भरा हुआ

खुदाई से निकला हुआ कचरा सड़क की दोनों तरफ डाला जा सकता है, जिस पर सड़क बन सकती है, और वैसे ही गाद का उपयोगी हिस्सा वापिस खेतों में डाला जा सकता है। इस समूह द्वारा लिया गया 5 किमी लम्बे हिस्से पर केवल 84 लाख रुपये खर्च हुए। पूरी नदी अब पानी से भर गई है। गाद हट जाने से, रुके हुए पानी से नदी के आसपास के कुओं के रिचार्ज होने में मदद मिलेगी और इससे चारों तरफ की भूजल व्यवस्था में सुधार हुआ है। जिन कुओं के बारे में लोग बताते हैं कि पानी की एक बूंद भी नहीं होती थी, अब किनारे तक भरे हुए हैं।

यदि आप मोहा नामक गाँव का दौरा करते हैं, तो और भी बेहतरीन दृश्य आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। यहाँ कई हेक्टेयर क्षेत्रफल का एक बड़ा तालाब साफ़ किया गया है। यह तालाब 1972 में एक परकोलेशन टैंक (आसपास के कुओं/भूजल के रिचार्ज के लिए बना रेतीला-छिद्रदार तालाब) के रूप में बनाया गया था और तब से किसी ने भी इसकी ओर ध्यान नहीं दिया था। पिछले 40 वर्षों में गाद का जमाव गहरा था और उसने सभी तले में मौजूद छिद्रों को बंद कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ, कि पिछले साल टैंक की दीवार से ठीक सटे हुए कुओं तक में भी पानी नहीं था। वर्ष 2016 में हटाई गई गाद की मात्रा बहुत ज्यादा थी। गाद को मशीनों द्वारा खोदकर निकाला गया और किसानों द्वारा ढो कर अपने खेतों में ले जाया गया। उन्होंने ढुलाई के खर्च का भुगतान किया। इससे 150,000 से ज्यादा ट्रैक्टर-ट्रॉली भर गाद निकालकर खेतों में डाली गई। इस तरह 500 हेक्टेयर से अधिक जमीन पर नई मिट्टी की परत है।

जलयुक्त शिवर कार्यक्रम के निष्पक्ष कार्यान्वयन के सबूत इस क्षेत्र में कई स्थानों पर मिलते हैं। जब एक विशेष परियोजना के अंतर्गत, नदी या नाले को गहरा और चौड़ा करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, तो यह सबूत बेहतर होते हैं। इसमें कोई शक नहीं है, कि जब एक सतर्क और इच्छुक समुदाय एकजुट होकर, इस तरह की योजनाओं का पूरा लाभ उठाता है। लेकिन किसी भी मामले में, खुदाई वाली गतिविधियों से पानी के भंडारण की गुंजाइश बनेगी और यदि भूजल स्थिति में सुधार के लिए पानी का भंडारण महत्वपूर्ण उद्देश्य है, तो कार्यक्रम की ज्यादातर योजनाओं के बारे में कहा जा सकता है, कि एक हद तक उनका उद्देश्य पूरा हुआ है।

बेहतर और सस्ता विकल्प

सारांश निष्कर्ष इस प्रकार है। बहुत से हालात में, निर्माण की बजाय खुदाई करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। निर्माण में सिर्फ एक लाभ है, इसमें दिखावा है। निर्माण में भारी रकम खर्च होती है, खामियों की बड़ी गुंजाइश रहती है, अचानक भारी वर्षा होने या तेज बहाव से बह सकता है, डुबो सकता है, आदि। खुदाई में ऐसा खतरा नहीं है; मिट्टी को सुधार कर कृषि पैदावार में बड़ा योगदान देता है, भूजल को रिचार्ज करता है और क्षेत्र को अधिक टिकाऊ बनाता है।

सबसे अच्छी बात यह है कि यह बहुत सस्ता है। इस प्रकार, आप खुदाई के माध्यम से कृषि अर्थव्यवस्था में सुधार कर सकते हैं। लेकिन जैसी कि अक्सर विडंबना होती है, सस्ते समाधान नीति-निर्माताओं में लोकप्रिय नहीं हैं। बड़े बजट की योजनाओं की घोषणा गर्व के साथ जोरशोर से की जा सकती है और गरीबों के प्रति चिंता का जोरदार प्रदर्शन किया जा सकता है। सस्ती योजनाएं नीति निर्माता को एक कंजूस के रूप में दर्शाती हैं।

जलयुक्त शिवर में खुदाई करने पर – जैसे कि जलधारा को गहरा और चौड़ा करने, खेत तालाब बनाने, आदि जोर होता है। हालांकि बेईमान ठेकेदार और उदासीन उपयोगकर्ता कुछ प्रयासों के अप्रभावी हो जाने का कारण बन सकते हैं, और ऐसी भी जानकारियां हैं कि कई खेत तालाबों का काम बहुत ख़राब तरीके से किया गया है, लेकिन कुल मिलाकर इसमें दूसरे सभी कार्यक्रमों की तुलना में संसाधनों की बहुत कम बर्बादी है।

संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।