बैंकों में महिलाओं की उपेक्षा को देखते हुए, स्थानीय बैंकर लखीमी बरुआ ने महिलाओं के लिए असम का पहला सहकारी बैंक शुरू किया, जिससे हजारों वंचित महिलाओं की वित्तीय साक्षारता और सशक्तिकरण के साथ बैंकों तक पहुंच सुनिश्चित हुई।
कुछ लोगों के लिए बैंक जाना डरावना अनुभव होता है, खासकर उनके लिए जो पढ़े-लिखे नहीं हैं।
यदि तंग करने वाली संपन्नता आज भी किसी इंसान को बेचैन कर देती है, तो कल्पना कीजिए कि दशकों पहले वह कितनी घबराहट पैदा करता होगा, विशेष रूप से अनपढ़ महिलाओं के लिए।
इसी लिए लखीमी बरुआ ने महिलाओं के लिए बैंकिंग को आसान बनाने के लिए असम में एक बैंक शुरू किया।
बाईस साल बाद, हजारों हाशिए पर जीने वाली महिलाओं के सशक्तिकरण और वित्तीय साक्षरता में मदद करने के बाद, उन्हें पद्म श्री पुरस्कार मिला है।
अपने प्रयासों के प्रति पहचान मिलने के कारण लखीमी बरुआ का नाम इस क्षेत्र के घर घर तक पहुँच गया है।
गरीबी से निजात के तरीके का अध्ययन करने के लिए दृढ़ संकल्प
लेकिन बरुआ का बचपन आसान नहीं था।
उनकी मां का देहांत उन्हें जन्म देते ही हो गया। उनके पिता असम के गोलाघाट जिले के एक गाँव में गरीबी में रहते थे। वह राज्य भर में मंदिरों में आयोजित होने वाले धार्मिक नाटकों के लिए छात्रों को प्रशिक्षण देते थे, जिसे इलाके में ‘सतरा’ के नाम से जाना जाता है।
बरुआ कहती हैं – “मैं बहुत छोटी थी, लेकिन अभी भी मेरे बचपन की धुंधली यादें हैं।”
नियति ने फिर वार किया, जब बरुआ ने 13 साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया और वह अपने चाचा और चाची के साथ रहने लगी, जो बेहद गरीब थे।
वह याद करती हैं – “मुझे अभी तक याद है। मेरी मासिक स्कूल फीस सिर्फ 2 रुपये थी, लेकिन हमारे लिए यह भी बहुत बड़ी रकम थी। हमारी आर्थिक स्थिति को देखते हुए स्कूल प्रबंधन ने फीस घटाकर आधी कर दी। लेकिन हमारे लिए हर महीने 1 रुपये का भुगतान करना अभी भी एक मुश्किल काम था।”
अपने परिवार में आर्थिक योगदान के लिए, बरुआ ने अपने सिलाई कौशल का उपयोग किया।
बरुआ कहती हैं – “जिस उम्र में लड़कियां खेल रही थीं, मैं उनकी स्कूल यूनिफॉर्म की सिलाई कर रही थी। मैंने एक जोड़ी युनिफॉर्म सील कर 5 रुपये कमाए और तब यह मेरे लिए बहुत बड़ी रकम थी।”
कई कठिनाइयों और गरीबी से जूझते हुए, और अतिरिक्त आय के लिए एक स्थानीय स्कूल में पढ़ाकर, वह अपनी शिक्षा पूरी करने में सफल रही।
महिलाओं के लिए चुनौतीपूर्ण माहौल
अपने संक्षिप्त अध्यापन करियर के दौरान, बरुआ ने महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को महसूस किया। उनका वेतन मिलने में अक्सर देरी होती थी और उन्हें अपने दैनिक खर्चों के प्रबंधन में दिक्कत होती थी।
वह जल्दी से बैंकिंग में चली गईं, जब उन्हें 1967 में गोलाघाट के एक सहकारी बैंक में नौकरी मिल गई।
उन्होंने कहा – “मैं मुश्किल से 18 साल की थी। मेरी पहली तनख्वाह 120 रुपये थी, जो तब मेरे लिए एक मोटी रकम थी।”
जल्द ही बरुआ का लगभग 50 किलोमीटर दूर जोरहाट में ट्रांसफर हो गया।
यह उनका जोरहाट का कार्यकाल था, जिसके दौरान उन्होंने देखा कि महिलाओं को एक साधारण बैंक खाता खोलने में भी कठिनाई होती है।
“पूरी व्यवस्था पर पुरुष हावी थे। मुझे एहसास हुआ कि बैंक में आने वाली महिलाओं को कैसे नजरअंदाज किया जाता है।”
जो महिलाएँ पहले खाता खोलने में कठोर औपचारिकताओं के कारण बैंक में घुसने से डरती थी, उन्हें इसे चालू रखने के दौरान और भी परेशान किया जाता था।
उन्होंने VillageSquare को बताया – “मैं अक्सर बिचौलियों को गरीबों के खाते संचालित करते देखती थी। वे गरीब लोगों के पैसे का एक हिस्सा उनकी मदद के लिए कमीशन के रूप में ले लेते थे।”
महिला-अनुकूल बैंकों की जरूरत को देखना
बरुआ ने महसूस किया कि आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करने के लक्ष्य वाली महिलाओं के लिए यह एक बड़ा झटका है।
वह कहती हैं – “मुझे उनके लिए बहुत बुरा लगा। मैंने महसूस किया कि महिलाओं के उत्थान और उनके वित्तीय साक्षरता के साथ सशक्तिकरण के लिए कुछ किया जाना चाहिए।”
उन्होंने अपने पति, प्रभात बरुआ के साथ इस मामले पर चर्चा की, जो खुद जोरहाट बैंक में काम करते थे।
दम्पत्ति ने महिलाओं के लिए बैंकिंग को सुलभ बनाने और उन्हें आर्थिक रूप से साक्षर बनने में मदद करने के लिए कुछ करने की जरूरत महसूस की।
महिला सहकारी बैंक शुरू करने के लिए आठ साल का इंतजार
वर्ष 1990 में लखीमी बरुआ ने भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को पत्र लिखकर, केवल महिलाओं के लिए काम करने वाला सहकारी बैंक खोलने की अनुमति मांगी।
बरुआ को बैंक शुरू करने के लिए जरूरी औपचारिकताओं की जानकारी नहीं थी। लेकिन उन्होंने महसूस किया कि वंचित महिलाओं को गरीबी की बेड़ियों से निकालने का एकमात्र तरीका एक विशेष महिला सहकारी बैंक था।
उन्हें आरबीआई से अनुमति मिलने के लिए आठ साल तक इंतजार करना पड़ा। दो साल बाद उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली।
वर्ष 2000 में उन्होंने आरबीआई के दिशानिर्देशों के अनुसार, 1,500 सदस्यों और 8.45 लाख रुपये की प्रारंभिक शेयर पूंजी के साथ, ‘कनकलता महिला शहरी सहकारी बैंक लिमिटेड’ की शुरुआत की।
बैंक का नाम असम की स्वतंत्रता सेनानी कनकलता बरुआ के नाम पर रखा गया है, जिनकी 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान अंग्रेजों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी।
हजारों अनपढ़ महिलाओं की सेवा प्रदान करना
अब उनके बैंक की कार्यशील पूंजी लगभग 17 करोड़ रुपये है और तीन, दो जोरहाट और एक शिवसागर जिले की शाखाओं में 21 लोग काम करते हैं।
बरुआ कहती हैं – “हमारे ज्यादातर खाताधारक चाय बागान के कर्मचारी हैं जो पूरी तरह से गरीबी में रहते हैं। हम उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करने की कोशिश करते हैं।”
उनके बैंक में आने वाली महिलाओं को सहज महसूस कराने के लिए, कर्मचारी हर तरह से प्रयास करते हैं।
एक कर्मचारी, शिबानी राजगढ़ कहती हैं – “आमतौर पर औपचारिकताएं पूरी करते समय लोग घबरा जाते हैं। लेकिन हम उन्हें सहज महसूस कराने की कोशिश करते हैं। हम अनपढ़ के लिए खुद फॉर्म भरते हैं। हम उन्हें अपनी सर्वश्रेष्ठ सेवाएं प्रदान करते हैं।”
बैंक के लगभग 4,500 खाताधारक हैं, जिनमें से 80% अनपढ़ महिलाएं हैं।
बरुआ ने बताया – “हमारे ग्राहक सिर्फ 20 रुपये के न्यूनतम शुल्क के साथ खाता खोल सकते हैं, या जो भी वे वहन कर सकते हैं। हम बहुत मामूली ब्याज दर पर कर्ज भी देते हैं।”
अब महिलाएं बिचौलियों पर निर्भर हुए बिना जब चाहें पैसा जमा करा सकती हैं और जब चाहें निकाल सकती हैं।
एक ग्राहक, जुनाई गोगोई ने कहा – “मैं पिछले पांच सालों से ग्राहक हूँ। मुझे कभी किसी तरह की समस्या नहीं आई है। कर्मचारी बहुत ही दोस्ताना और सहयोगी हैं।”
बैंक और संस्थापक को सम्मान
देश के विभिन्न हिस्सों के शोधकर्ता अब बैंक की केस स्टडी के लिए आते हैं।
बरुआ कहती हैं – “इससे मुझे गर्व होता है कि मेरे प्रयासों का अंतत: परिणाम आया है। हम इस क्षेत्र की बहुत सी महिलाओं को वित्तीय साक्षरता प्रदान करने में कामयाब रहे हैं।”
वर्ष 2015 में उनके बैंक को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा देवी अहिल्या बाई होल्कर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
पद्म श्री पुरस्कार मिलने से बरुआ और भी खुशियों से भर गई हैं।
वह कहती हैं – “मेरे जैसी गरीब पृष्ठभूमि की महिला के लिए यह गर्व की बात है, जिसने जीवन में कठोर संघर्ष किया। लेकिन मेरी असली ट्रॉफी वह खुशी है, जो मैं अपनी हजारों महिला ग्राहकों के चेहरे पर देखती हूँ। वे बैंक की मदद से आर्थिक रूप से सशक्त हो गई हैं और वे अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कड़ी मेहनत करती हैं।”
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