प्राचीन ‘मयूरभंज छऊ’ नृत्य पुनरुद्धार की ओर
एक पूर्व शाही परिवार के संरक्षण और सरकारी सहयोग की बदौलत, 19वीं सदी का नाटकीय मार्शल आर्ट पर आधारित मयूरभंज छऊ नृत्य पुनरुद्धार की ओर बढ़ रहा है।
एक पूर्व शाही परिवार के संरक्षण और सरकारी सहयोग की बदौलत, 19वीं सदी का नाटकीय मार्शल आर्ट पर आधारित मयूरभंज छऊ नृत्य पुनरुद्धार की ओर बढ़ रहा है।
जिस सांस्कृतिक परम्परा या कला को किन्हीं शाही परिवारों ने शुरू किया और संरक्षण दिया, उन राजाओं की सत्ता समाप्त हो जाने पर उस का क्या होता है? ज्यादातार लोगों की याददाश्त से दूर होती जाती हैं, जब तक कि वे पूरी तरह खो नहीं जाती।
लगभग ऐसा ही कुछ मयूरभंज छऊ नृत्य के साथ हुआ।
जब तक कि राज्य सरकार ने 2016 में इस नाट्य-नृत्य को पुनर्जीवित करने के लिए कदम नहीं उठाए।
इस नृत्य विधा को और भी बढ़ावा तब मिला, जब तत्कालीन मयूरभंज के शाही परिवार ने 2019 में अपने बेलगड़िया महल को एक होटल में बदल दिया और छऊ नर्तकों को पर्यटकों के लिए प्रदर्शन करने को मिला।
मयूरभंज 1 जनवरी 1949 को ओडिशा राज्य का हिस्सा बनने तक एक रियासत थी। पूर्व मयूरभंज शाही परिवार की अक्षिता एम. भंज देव कहती हैं – “मेरे परदादा महाराजा कृष्ण चंद्र भंज देव ने 1855 में अपने शासनकाल के दौरान, छऊ शुरू करवाया था।”
शास्त्रीय और मार्शल आर्ट विधाओं का मिश्रण यह नृत्य, लोक और शास्त्रीय संगीत की संगत में प्रस्तुत किया जाता है।
माना जाता है कि छऊ का उद्भव सैन्य शिविरों में हुआ, जहां छऊ से सैनिक सक्रिय रहते और युद्ध के दौरान उनका मनोरंजन होता। मयूरभंज छऊ तीन छऊ नृत्यों में से एक है। अन्य दो पश्चिम बंगाल का पुरुलिया छऊ और झारखंड का सरायकेला-खरसावां छऊ हैं।
मयूरभंज छऊ में, भोक्त समुदाय के पुरुष सदस्य चैत्र संक्रांति पर नृत्य करते हैं, जो नए साल की शुरुआत का एक त्योहार है। इसकी तैयारी में, नर्तक अपने प्रदर्शन से पहले 13 दिनों तक उपवास रखते हैं।
पारम्परिक धोती पहने नर्तक, महाकाव्यों और पुराणों के प्रसंगों का प्रदर्शन करते हैं।
मयूरभंज छऊ में कभी 200 से ज्यादा नृत्य रूप थे, जिनमें एकल, युगल और समूह प्रदर्शन शामिल थे। अब केवल 30 रूपों का प्रदर्शन होता है।
स्वतंत्रता के बाद शाही संरक्षण की समाप्ति और पर्याप्त सरकारी सहयोग के अभाव के कारण, छऊ का पतन हो गया।
टेलीविजन और इंटरनेट के माध्यम से उपलब्ध अन्य प्रकार के मनोरंजन से प्रतिस्पर्द्धा के कारण और ज्यादा गिरावट आई।
मयूरभंज छऊ नृत्य की कला को पुनर्जीवित करने के लिए, जिला प्रशासन और प्रसिद्ध नृत्यांगना सुभाश्री मुखर्जी, जो पहले छऊ कलाकारों के साथ काम करती थी, ने 2016 में ‘छौनी परियोजना’ शुरू की।
इस पहल के अंतर्गत, मयूरभंज छऊ प्रदर्शन इकाई शुरू की गई। एक गहन ऑडिशन के माध्यम से सौ नर्तकों का चयन किया गया।
आज ‘प्रोजेक्ट छौनी’ एक पंजीकृत ट्रस्ट है। वर्ष 2018 में इसे 1 लाख रुपये की एकमुश्त सरकारी धनराशि मिली।
आज 42 नर्तक मयूरभंज छऊ प्रदर्शन इकाई का हिस्सा हैं, जो दर्शाता है कि अभी भी बढ़ोत्तरी की गुंजाइश है।
परियोजना छौनी के निदेशक, बिभुदत्त दास कहते हैं – “मयूरभंज छऊ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें नर्तक दूसरे दो रूपों की तरह नकाब का उपयोग नहीं करते। नकाब का उपयोग केवल पशु-पात्रों के लिए किया जाता है।”
मयूरभंज छऊ नृत्य के ऐसे अनूठे पहलू हैं, कि इसे बनाए रखने के लिए और अधिक किया जाना चाहिए।
भंज देव कहती हैं – “सरकार को नृत्य विधा को प्रमुखता में लाना चाहिए और सभी हितधारकों के लिए धन सुनिश्चित करना चाहिए। आज मयूरभंज छऊ पर कोर्स देने वाले ज्यादा डांस कॉलेज नहीं हैं।”
नृत्य से छोटी आय अर्जित करना सिर्फ एक प्रोत्साहन भर है।
भंज देव ने कहा – “कुछ नर्तक हमारे मेहमानों के लिए प्रदर्शन करते हैं और पैसा कमाते हैं।”
शायद महल में प्रदर्शन के लालच में, युवा नृत्य सीखने में रुचि दिखा रहे हैं।
परम्परागत रूप से, सिर्फ पुरुष ही मंच पर जाते थे, लेकिन नृत्य मंडलियों में महिलाओं का स्वागत होने के साथ, यह स्थिति भी बदल रही है।
डेजी बहेड़ा शास्त्रीय नृत्य ओडिसी का अध्ययन करती थी। लेकिन जब छऊ पर एक ग्रीष्मकालीन कार्यशाला का आयोजन किया गया, तो उन्होंने इसमें भाग लेने का फैसला किया।
अब 22 साल की बहेड़ा, 18 साल की उम्र से छऊ सीख रही हैं। ‘परियोजना छौनी’ इकाई के हिस्से के रूप में, उन्होंने कोलकाता, नागालैंड और नागपुर में प्रदर्शन किए हैं।
शाही वंशज अक्षिता भंज देव भी छऊ नृत्य सीख रही हैं।
अफसोस की बात है कि छऊ नर्तक के नाते ज्यादा पैसे नहीं मिलते हैं। इसलिए, कई नर्तक अपने गुजारे के लिए अन्य नौकरियां करते हैं। एक ई-कॉमर्स कंपनी में काम करने वाले, छऊ नर्तक, प्रबीन कुमार दास के अनुसार, बेशक यह बात समझ में आने वाली है, लेकिन इसका मतलब यह है कि कला के रूप में निखार नहीं आता है।
दास कहते हैं – “यदि नर्तकों को टिकाऊ आय के वैकल्पिक साधन मिलते हैं, तो वे पूरे साल छऊ का अभ्यास करना जारी रख सकते हैं। अन्यथा वे प्रदर्शन से पहले कुछ ही दिन अभ्यास करते हैं और इसलिए कोई सुधार नहीं होता है।”
छऊ नर्तकों के लिए वैकल्पिक आजीविका पैदा करने के लिए, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में बढ़ईगीरी और दूसरे पाठ्यक्रम जैसे वैकल्पिक कौशल विकास के प्रयास किए गए हैं। लेकिन मुखर्जी, जिन्होंने न सिर्फ छौनी प्रोजेक्ट शुरू किया, बल्कि अभी भी इसकी कार्यकारी निदेशक हैं, ने स्वीकार किया कि इसके लिए मजबूत कदम नहीं उठाए गए हैं।
लेकिन यूनेस्को के 2010 में छऊ को ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’ (Intangible Cultural Heritage of Humanity) की सूची में शामिल करने के कारण, एक उम्मीद है कि सरकार और शाही वंशजों के प्रयास इस अनूठी विरासत को संरक्षित करेंगे।
दीपन्विता गीता नियोगी दिल्ली स्थित पत्रकार हैं।
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