असम में कांस्य की आग बुझ रही है

बारपेटा, असम

कच्चे माल की बढ़ती कीमतों के साथ-साथ, महामारी और दूसरे राज्यों से मिलने वाली सख्त प्रतिस्पर्धा के कारण, असम के सार्थेबारी के प्राचीन पीतल और कांस्य (बेल मेटल) उद्योग को झटका लग रहा है।

धनजीत डेका एक छोटी लेकिन तेज आग के सामने, कांस्य के बर्तन बनाने में रोज लगभग 10 घंटे बिताते हैं। वह ‘पान बाटा’ (तले वाला कटोरा) बनाते हैं, जिनका उपयोग असम के घरों में मेहमानों को सुपारी पेश के लिए किया जाता है।

यह 40-वर्षीय व्यक्ति उन 10,000 कारीगरों में से एक हैं, जो बारपेटा जिले के सार्थेबारी गांव में रहते हैं, जिसे इस पूर्वोत्तर राज्य के सबसे पुराने हस्तशिल्प उद्योगों में से एक का घर होने का गौरव प्राप्त है।

कारीगर कलश, सराय (तले और ढक्कन वाली प्लेट), कहि (सुराही), बाटी (कटोरा), लोटा और टाल (झांझ/मंजीरा) जैसे बर्तन बनाते हैं।

सार्थेबारी का कांस्य उद्योग सदियों से कायम है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

लेकिन उनकी प्राचीन तकनीक कई मोर्चों पर ख़तरे में है। 

सार्थेबारी का इतिहास क्या है?

राज्य की राजधानी गुवाहाटी से लगभग 70 किलोमीटर दूर, सार्थेबारी पांच गांवों का एक समूह है, जिसमें 400 इकाइयों में लगभग 10,000 कारीगर काम करते हैं।

इतिहासकारों का मानना है कि सार्थेबारी के ग्रामीणों ने 350 ईसा पूर्व के आसपास कांस्य के बर्तन बनाना शुरू किया था।

गौहाटी विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर, नरेन पटगीरी कहते हैं – “हमें समय ठीक ठीक नहीं जानते, लेकिन आम तौर पर माना जाता है कि इसकी शुरुआत ईसा मसीह से भी पहले हुई थी। 7वीं शताब्दी ईस्वी के सबूत उपलब्ध हैं, जब वर्मन राजवंश के राजा, कुमार भास्कर वर्मन ने असम (तत्कालीन कामरूप) पर शासन करते थे। उन्होंने यहां बने बर्तन वर्धन वंश के राजा, राजा हर्षवर्द्धन को उनके राज्याभिषेक के समय उपहार में दिए थे।”

वह कहते हैं – “यहां तक कि असम का दौरा करने वाले प्रख्यात चीनी विद्वान, ह्वेन त्सांग को भी कुमार भास्कर वर्मन ने ये बर्तन उपहार में दिए थे। लेकिन ब्रिटिश राजस्व नीति ने इस उद्योग को नष्ट कर दिया, क्योंकि उन्होंने अपने उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए, भूटान और तिब्बत के साथ सार्थेबारी के व्यापार को बंद कर दिया।”

मृदुभाषी डेका कहते हैं कि उनके जैसे पीतल और कांस्य के कारीगरों को आमतौर पर ‘कहार’ कहा जाता है, जो लोहार के लिए असमिया शब्द है। बेल मेटल कांस्य धातु का एक रूप है, जिसे बजाने पर घंटी की ध्वनि पैदा होने के कारण इसे यह नाम दिया गया है।

डेका कहते हैं – “हमारे द्वारा बनाए गए तांबे और जिंक (जस्ता) के बर्तनों की मांग ज्यादातर राज्य के ऊपरी हिस्सों में है, क्योंकि बड़ी हिंदू आबादी धार्मिक अनुष्ठानों में उनका उपयोग करती है। ये माता-पिता द्वारा अपनी बेटियों को विवाह समारोहों के समय भी दिए जाते हैं।”

कच्चे माल की बढ़ती लागत

लेकिन कारीगरों का कहना है कि कच्चे माल की बढ़ती लागत के कारण उन्हें घाटा हो रहा है। 

एक युवा शिल्पकार, बिजय भुइयां (28) इंगित करते हैं – “पिछले चार साल में कच्चे माल की लागत दोगुनी से ज्यादा हो गई है। पिछले चार साल में तांबे की कीमत 320 रुपये से बढ़कर करीब 750 रुपये, जस्ता 1,200 रुपये से 2,700 रुपये और पीतल 250 रुपये से बढ़कर 450 रुपये हो गई है।”

कच्चा माल थोक व्यापारी द्वारा तैयार किया जाता है न कि कारीगरों द्वारा, जो सिर्फ उत्पादों का निर्माण करते हैं, इसलिए थोक व्यापारी उनकी मजदूरी बढ़ाने से इनकार करके अपना नुकसान कारीगरों पर डाल रहा है।

लेकिन यह उनकी चिंता का यह अकेला कारण नहीं है। 

पिछली कई शताब्दियों से हमारी तकनीक बदली नहीं है, क्योंकि हम अपनी सदियों पुरानी परम्परा को संरक्षित रखना चाहते हैं।

जीएसटी लागत और प्रतिस्पर्धा

‘असम को-ऑपरेटिव बेल मेटल यूटेंसिल्स मैन्युफैक्चरर्स सोसाइटी लिमिटेड’ के शेयरधारक, भास्कर ज्योति तामुली कहते हैं – “वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से उत्पाद की कीमत बढ़ जाती है। विदेशी खरीदार अक्सर ज्यादा कीमत पर उत्पाद खरीदने के लिए तैयार नहीं होते हैं। स्थानीय स्तर पर मिलने वाली कड़ी प्रतिस्पर्धा भी हमारे व्यवसाय को प्रभावित कर रही है।”

बेशक कारीगरों को दूसरे राज्यों के शिल्पकारों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश का शहर मुरादाबाद पीतल उत्पादों के लिए प्रसिद्ध है।

लेकिन वे उत्पादन के लिए मशीनों का उपयोग करते हैं।

सार्थेबारी कांस्य तकनीक में पिघली हुई धातु को लोहे के सांचों में डालना शामिल है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

भुइयां कहते हैं – “मौलिकता बनाए रखने के लिए हम अब भी उत्पाद हाथ से बनाते हैं। पिछली कई शताब्दियों से हमारी तकनीक बदली नहीं है, क्योंकि हम अपनी सदियों पुरानी परंपरा को संरक्षित रखना चाहते हैं। लेकिन उत्पादन की आधुनिक पद्धति में बदलाव के प्रति हमारी अनिच्छा, हमारी आजीविका पर असर डाल रही है।”

सार्थेबारी कांस्य तकनीक क्या है?

इस्तेमाल हो चुकी कांस्य की वस्तुएं, जैसे कप या प्लेट, के टुकड़े करके जलती हुई आग में डाल दिया जाता है।

जब यह पिघल जाता है, तो गर्म पिघले हुए पदार्थ को एक लोहे के सांचे में डाला जाता है, जो ठंडा होने पर उसी आकार में आ जाता है। धातु की इन सिल्लियों को हथौड़े से पीट कर एक सटीक आकार में ढाल लिया जाता है।

इस क्षेत्र में काम करने वाले पीतल उत्पाद निर्माताओं का भाग्य भी अलग नहीं है।

वे सराय (स्टैंड और ढक्कन वाली ट्रे) बनाने के लिए जाने जाते हैं, जिनका उपयोग ज्यादातर सार्वजनिक कार्यक्रमों में मेहमानों के सत्कार के लिए किया जाता है और इन्हें मठों में दान पेटी के रूप में भी रखा जाता है।

एक अन्य शिल्पकार कृष्ण दास (44) कहते हैं – “हम आजकल इस्तेमाल होने वाली मशीनों की बजाय अब भी बर्तनों को चमकाने के लिए पारम्परिक तरीके इस्तेमाल करते हैं। कच्चे माल की बढ़ती लागत के बावजूद, हम दाम नहीं बढ़ा सकते, क्योंकि कोई भी इसे नहीं खरीदेगा और लोग बाजार में उपलब्ध सस्ते उत्पाद खरीदने लगेंगे।”

अब भी महामारी के झटके से उबरता 

इन जारी चिंताओं के अलावा, कई शिल्पकार अब भी महामारी के कारण लगे प्रतिबंधों से जूझ रहे हैं, जिससे उनकी आजीविका को भी भारी झटका लगा है।

सार्थेबारी के एक शिल्पकार, मनोज तामुली (38) कहते हैं – “कांस्य की बनी वस्तुओं का उपयोग पड़ोसी भूटान में बौद्ध मठों द्वारा किया जाता है। वहां के थोक खरीदार इन वस्तुओं को खरीदने सीधे यहां आते थे और फिर इन्हें भूटान में बेचते थे। हम उनसे अच्छी कमाई करते थे।”

सार्थेबारी के कारीगर भूटान के मठों में इस्तेमाल होने वाले बर्तन बनाते हैं (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

तामुली कहते हैं – “लेकिन महामारी ने सब कुछ बदल दिया। भूटान सरकार ने हम पर सीमा प्रतिबंध लगा दिए और लोगों को बाहर निकलने से रोक दिया गया। हमारे व्यवसाय का एक हिस्सा ख़त्म हो गया। यह अब तक सामान्य नहीं हुआ है। महामारी से पहले, हम भूटान और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों को हर रोज लगभग 500 किलोग्राम माल बेचते थे, लेकिन प्रतिबंधों ने हमें बर्बाद कर दिया है।”

प्रतिदिन, जैसे ही शाम होती है, जलती हुई आग को बुझाकर सार्थेबारी में काम बंद कर दिया जाता है।

डेका विचार करते हैं। 

वह जानते हैं कि उनके लोगों और उनके शिल्प की समस्याएँ बहुत बड़ी हैं, शायद अजेय भी। वह सोचते हैं कि आधुनिकीकरण आगे बढ़ने का एक संभावित तरीका है, लेकिन सदियों से चली आ रही कांस्य परम्परा की समाप्ति का विचार वह सहन नहीं कर नहीं सकते।

“भविष्य अनिश्चित है। हम जानते हैं कि परिवर्तन ही जीवित रहने का एकमात्र रास्ता है, लेकिन यह कला हमारे पूर्वजों की कड़ी मेहनत और भावनाओं की वाहक है, जिसे हम आगे बढ़ा रहे हैं। थोड़ा सा बदलाव इसके गौरवशाली अतीत को मिटा देगा।”

इस लेख के शीर्ष के मुख्य फोटो में आग में कांस्य के बर्तन बनाते हुए दिखाया गया है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

गुरविंदर सिंह एक कोलकाता स्थित पत्रकार हैं।