अफ्रीकी दौरों से राजस्थानी ग्रामीण महिलाओं ने तोड़े सामाजिक बंधन 

धौलपुर, राजस्थान

शायद ही अपने राज्य से कभी बाहर गई राजस्थानी महिलाएं, पश्चिम अफ्रीका के माली की यात्रा से सम्मान अर्जित करती हैं और वहां की महिलाओं को स्वयं सहायता समूह के अलावा, रोटी बनाना और साड़ी पहनना सिखाती हैं।

राजस्थान के धौलपुर जिले के गोपालपुरा गांव में अपनी फसलों की देखभाल करते समय, जब भी कोई विमान ऊपर से उड़कर जाता था, तो बेबी राजपूत हमेशा ऊपर देखती रहती थी।

वह अक्सर सोचती थी कि हवाई जहाज जितनी ऊंचाई पर, और पक्षियों जितनी आजादी के साथ उड़ना कैसा होता होगा।

उड़ान के प्रति उनका आकर्षण उनके लिए शायद दबाव-मुक्ति का एक वाल्व था, जो पितृसत्ता में महिलाओं को सीमित स्वतंत्रता प्रदान करने का एक बहुत जरूरी उपकरण है।

लेकिन राजपूत उन मुट्ठी भर अग्रणी लोगों में से हैं, जिन्होंने एक रूढ़िवादी समाज में नई जमीन तैयार की, जो मानता है कि एक महिला की सही जगह घर में और पर्दे या घूंघट के पीछे है। वह जगह-जगह जाकर महिला स्वयं सहायता समूह बनाने में मदद कर रही हैं।

मैं पहली बार हवाई जहाज़ पर चढ़ने के लिए उत्साहित थी। सामान पैक करने में समय लगा। मैंने गेहूं का आटा, दालें, मसाले और चाय साथ लिए। 

अब तक 300 प्रशिक्षण सत्रों के अनुभव के साथ, राजपूत गीतों और खेलों के माध्यम से दूसरों को प्रेरित करती हैं। उनके नाम की तरह ही उनके सत्र भी मज़ेदार और आकर्षक होते हैं।

लेकिन वह नई ऊंचाइयों पर पहुंच गईं, जब उन्हें न सिर्फ राजस्थान से बाहर ही नहीं, बल्कि अफ्रीका जाने के लिए कहा गया।

भारत से अफ्रीका

उनके अंदर के प्रेरक-वक्ता ने 2020 में उड़ान भरी, वह साल जब कोविड-19 महामारी ने दुनिया को घर के अंदर कैद कर दिया और हवाई यात्रा को अस्त-व्यस्त कर दिया। प्रतिबंध लागू होने से ठीक पहले, बेबी ज़मीन से घिरे पश्चिमी अफ़्रीकी देश माली को जाने वाली उड़ान पर थी।

वह कहती हैं – “मैं पहली बार हवाई जहाज़ में यात्रा के लिए उत्साहित थी।”

लॉकडाउन से ठीक पहले, राजस्थान की महिलाएँ माली गईं और वहां की महिलाओं को एसएचजी के कामकाज पर प्रशिक्षित किया (फोटो – मंजरी फाउंडेशन/कैमाइड के सौजन्य से)

उनकी तैयारी ज़मीनी स्तर से थी – अपना पासपोर्ट बनवाने के लिए जयपुर जाना, नई साड़ियाँ खरीदना।

राजपूत कहती हैं – “सामान पैक करने में समय लगा। मैंने गेहूं का आटा, दालें, मसाले और चाय साथ लिए।”

बदलाव के बीज

धौलपुर के गांवों में, अपनी गहरी घाटियों में दस्यु-कथाओं को जन्म देने वाली चम्बल नदी ने इसके इतिहास की दिशा तय की है।

लेकिन समय बदल रहा है।

बदलाव के बीज राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के हिस्से के रूप में स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से बोए गए थे। विश्व बैंक का अनुमान है कि 6.7 करोड़ भारतीय महिलाएँ साठ लाख स्वयं सहायता समूहों की सदस्य हैं।

भारतीय महिलाओं ने बताया कि कैसे कुछ स्वयं सहायता समूह मिलकर एक संघ का गठन करते हैं (फोटो – मंजरी फाउंडेशन/कैमाइड के सौजन्य से)

संरचनात्मक रूप से, 10-12 गांवों के एक समूह में एक स्वयं सहायता समूह होता है, जो गरीबों को छोटे और किफायती व्यावसायिक ऋण उपलब्ध कराता है। कई महिलाओं को अगरबत्ती, कागज के दोने आदि बनाने वाली कुटीर इकाइयां स्थापित करने या पशु खरीदने और पालने के लिए व्यक्तिगत रूप से या समूहों में ऋण मिला। कुछ लोन 1 लाख रुपये तक के होते हैं। 

स्वयं सहायता समूह द्वारा सामाजिक परिवर्तन

ये समूह साप्ताहिक बैठकें और नियमित प्रशिक्षण सत्र आयोजित करते हैं। वे सामाजिक सरोकारों से जुड़े हैं।

गोपालपुरा गांव में अवैध शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए महिलाओं ने पुलिस पर दबाव बनाया। कुछ सदस्य अपने अनुभव साझा करने के लिए राजस्थान के भीतर या बाहर यात्रा करती हैं। इन यात्राओं ने उनके दृष्टिकोण को व्यापक बना दिया है।

बहुत अधिक यात्रा करने वाली बेबी राजपूत उस तरह से चौंकती और हांफती नहीं हैं, जैसा वह तब करती थी, जब उन्होंने केरल में नारियल के पेड़ों को देखा था, जिनके पत्ते उनके अपने राज्य के कालबेलिया लोक नर्तक के दुपट्टे की तरह समुद्री हवा में लहरा रहे थे।

हालाँकि माली की यात्रा को लेकर शुरू में ग्रामीणों ने एसएचजी महिलाओं का मजाक उड़ाया था, लेकिन अब वे महिलाओं के काम के लिए उनका सम्मान करते हैं (फोटो – मंजरी फाउंडेशन/कैमाइड)

अपनी नई मिली आज़ादी की बदौलत, ग्रामीण महिलाएँ उन सामाजिक बंधनों को तोड़ने में सक्षम हुई हैं, जो उन्हें सदियों से जकड़े हुए थे।

50-वर्षीया कमलेश, जिनकी 15 साल की उम्र में शादी हो गई थी, क्योंकि उनके माता-पिता गरीब थे, कहती हैं – “मैंने आज तक पारिवारिक खेत नहीं देखा है। महिलाओं को कोई आजादी नहीं है। मैंने वर्षों तक घूंघट प्रथा का पालन किया।”

जो लोग हमारी बैठकों के लिए हमारा मजाक उड़ाते थे, वे जानते हैं कि हमारा काम हमें विदेश ले गया। वे अब सम्मान दिखाते हैं। 

बहुत सी लड़कियों की किशोरावस्था में ही शादी कर दी गई, उन्हें स्कूल छोड़ने और घर पर रहने वाली पत्नियाँ और माँ बनने के लिए मजबूर होना पड़ा।

सीमाओं से परे देखना

कमलेश कहती हैं – “मुझे सीखने का शौक था। मैं अब भी विभिन्न विषयों पर ज्ञान जुटाने का प्रयास करती हूँ। हालाँकि मुझे अफ़्रीका के बारे में पता था, लेकिन मैंने कभी सपने में नहीं सोचा था कि वहाँ जाने का मौका मिलेगा।”

हंसाई गांव की लीला भी माली की फ्लाइट में थी। 

जब वह 2002 में एक स्व-सहायता समूह में शामिल हुईं, तो उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। समूह महिलाओं से छोटी, निश्चित किस्तों में पैसा इकट्ठा करता था और जब भी किसी को ऋण की जरूरत होती थी, तो जमा पूँजी से सदस्यों को कम ब्याज दरों पर नकद राशि दी जाती थी।

यह सब माली और राजस्थान की महिलाओं के लिए काम ही नहीं था। उन्हें खेल खेलने में भी मजा आया (फोटो – मंजरी फाउंडेशन/कैमाइड के सौजन्य से)

समूह में निवेश करने के लिए लीला अपने घरेलू खर्च के पैसों से कुछ हिस्सा अलग रख लेती थी।

यह पांच बच्चों की माँ कहती हैं – “मेरा परिवार इसके ख़िलाफ़ था। मैं झूठ बोल देती और मेरे बच्चे मेरा बचाव करते थे।”

जब उन्हें माली जाने के लिए चुना गया, तो प्रतिरोध व्यंग्य में बदल गया। लोगों ने व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ की कि महिलाएँ वापस नहीं लौटेंगी।

अफ़्रीका का अनुभव

बारह गांवों की 18 महिलाओं ने 2017, 2018 और 2020 में तीन समूहों में माली का दौरा किया, जो अपने लंबे फ्रांसीसी औपनिवेशिक अतीत के कारण एक फ्रैंकोफोन राष्ट्र कहलाता है।

वे गैर-लाभकारी ‘मंजरी फाउंडेशन’ और ग्रामीण विकास पर काम करने वाले माली के एक संगठन ‘कैमाइड’ के बीच एक साझेदारी कार्यक्रम में, इस गरीब अफ्रीकी देश में लगभग एक महीने तक रहे।

हजारों मील दूर होने के बावजूद, दोनों क्षेत्रों में पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक मुद्दे समान हैं।

राजस्थानी आगंतुकों की मदद से, माली की महिलाओं ने 10,000 महिलाओं को जोड़कर तीन संघ बनाए हैं। पहले संघ को स्थापित करने में ‘मंजरी’ सक्रिय रूप से शामिल थी, जबकि अगले दो संघों के लिए इसने दूर से कैमाइड का सहयोग किया।

माली की महिलाओं को एसएचजी शुरू करने और चलाने का तरीका सिखाने के बाद, राजस्थान की महिलाओं ने उन्हें रोटी बनाना और साड़ी पहनना सिखाया (फोटो – मंजरी फाउंडेशन/कैमाइड के सौजन्य से)

भारत-माली आदान-प्रदान उससे भी आगे बढ़ गया।

भारतीय महिलाओं ने अपनी मालियन बहनों को सिखाया कि रोटी कैसे बनाई जाती है या साड़ी कैसे पहनी जाती है। बेबी कहती हैं – “माली की संस्कृति बहुत अलग है। महिलाएं ज्यादातर मांस और मछली खाती हैं। वे बड़े बर्तनों में एक साथ खाना खाते हैं।”

माली की उनकी यात्राओं से स्पष्ट परिवर्तन आये।

रणपुरा गांव की शशिलता ने कहा – “जो लोग हमारी बैठकों के लिए हमारा मज़ाक उड़ाते थे, वे जानते हैं कि हमारा काम हमें विदेश ले गया। वे अब सम्मान दिखाते हैं।” एक और जत्था संभवतः अगले साल माली का दौरा करेगा। 

ओह, हाँ, वे अपना पासपोर्ट धोलपुर में प्राप्त कर सकते हैं। यहां अब एक पासपोर्ट कार्यालय है।

मुख्य छवि में राजस्थानी महिलाओं को दिखाया गया है, जो सुदूर माली गई और वहां की महिलाओं को स्वयं सहायता समूह बनाने में मदद की (फोटो – मंजरी फाउंडेशन/कैमाइड के सौजन्य से)

दीपान्विता नई दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं। वह एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म की पूर्व छात्रा हैं, जो ग्रामीण विकास, जेंडर और जलवायु परिवर्तन के बारे में लिखती हैं।